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रविवार, मई 10, 2020

कवि की जीवन दृष्टि को परिलक्षित करती कविताएँ


कविता-संग्रह - मेरे घर आई नदी
कवि - पूरन मुद्गल
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, जयपुर
कीमत - ₹100/-
पृष्ठ - 87
2018 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित कविता-संग्रह "मेरे घर आई नदी" स्वर्गीय पूरन मुद्गल जी की अंतिम पुस्तक है। इस संग्रह में 48 कविताएँ हैं, जिनमें कवि कभी खुद से तो कभी दूसरों से संवाद रचाता है। हालांकि वह किसी वाद, दर्शन में बंधना नहीं चाहता, लेकिन वह कर्मवाद का समर्थक है। वह कहता है-
"भाग्य के दस्तक देने पर भी / दरवाज़ा खोलने के लिए /
उठना तो पड़ता है" (पृ. - 35)
वह आडम्बरों का विरोधी है। वह मंदिर की घण्टी के माध्यम से मंदिर की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठित होने पर प्रहार करता है। वह कर्मकांड की बजाए प्रकृति को महत्त्व देता है। वह कहता है कि वह सुबह पोथी नहीं बाँच पाया, ध्यान-प्राणायाम नहीं कर पाया, क्योंकि वह प्रकृति के सान्निध्य में मस्त था। 
         पुल कवि के लिए महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। वह मेनका-विश्वामित्र के प्रसंग को याद करता है और सोचता है कि किसी तीसरे के कारण बना पुल टूट जाता है, लेकिन दोनों जरूरतमंद जब पुल बनाते हैं, तब वह स्थायी होता है। वह कहता है-
"धरती से धरती को / दिल से दिल को जोड़ने के लिए /
बनते रहेंगे पुल / अनेक पुल" (पृ. - 33)
उसके अनुसार अलग-अलग दार्शनिकों ने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर शब्दों के अलग-अलग पुल बना लिए हैं, लेकिन कवि इनसे बेपरवाह अर्थ भरे शब्दों की मंजूषा लिए चल रहा है, जिसे वह मंज़िल पर पहुँच कर रिता देता है। 
        कवि ने अपनी बात कहने के लिए दूसरे पात्रों का निर्माण किया है। वह सड़क पर मिले मुसाफिरों के माध्यम से चरैवेति चरैवेति और अप्प दीपो भव का संदेश पाता है और अंत में खलील जिब्रान को याद कर समझता है कि मानव ही सर्वोपरि है और वह अपने भरोसे चल पड़ता है, लेकिन यह चलना अप्प दीपो भव से अलग नहीं कहा जा सकता क्योंकि अप्प दीपो भव का अर्थ भी खुद को देखने, जानने से ही है। इसी शैली में लिखी एक अन्य कविता में वह राह के यात्रियों से जीवन सच के बारे में पूछता है और अंत में घर लौटकर माँ, पत्नी, बच्चे को देखकर जीवन सत्य को साकार रूप में देखता है। बस के युवा, वृद्ध यात्रियों के माध्यम से वह जवानी और बुढ़ापे को देखता है। 
       कवि ने भूख को सबसे बड़ा मानते हुए इस पर भी कविताएँ लिखी हैं। उसके अनुसार भूखे के लिए भूख में खाना ही प्रथम पसन्द होता है बाकी चीजें तब कोई अर्थ नहीं रखती। भूखा मछली को भोजन की तरह देखता है और मछली-सी आँख वाली तब कोई मा'ने नहीं रखती। भूखा आदमी सेब को वृक्ष से गिरते ही बिना धोए खा लेता है, उसका मन न न्यूटन की तरह सोचता है और न कवि की तरह। 
     कवि के अनुसार उसके सिर पर सपनों का बोझ है, कुछ सपने हल्के हैं तो कुछ बहुत भारी। सपनों में ही वह वाल्मीकि का पहला श्लोक सुनता है, रवि वर्मा के चित्र देखता है, बिस्मिल्ला की शहनाई सुनता है, लेकिन सायरन और घोड़ों की टाप सुनकर भयभीत भी होता है। अब कवि की नींद उड़ गई है-
"चाहा सो जाऊँ / फिर से /
पर अब / नींद कहाँ से लाऊँ" (पृ. - 60)
कवि मानता है कि उसका अधिकार सपनों पर है, सपनों के साकार होने पर नहीं। उसके अनुसार बन्द आँखों के सपने बड़े बेतरतीब होते हैं। 
कवि पुरानी बातों को याद करता है, जिसमें संभालकर रखा पंख और पुराना खत है। गुब्बारों के माध्यम से वह अतीत को याद करता है। वह यादों का पाथेय लिए हुए लंबे सफर पर निकला हुआ है। किसी के अपनी यादें साझा करने से वह पाता है-
"वह तो मेरा हमशक्ल निकला" (पृ. - 69)
       उसके अनुसार छोटे-छोटे सवाल जो ज़रूरतों से जुड़े हुए हैं, आदमी को घेरे रखते हैं। 
किताबें अलग-अलग राह दिखाती हैं, ये राह प्रकृति से आजीविका कमाने की भी है और विद्रोह की भी। विद्रोह का मार्ग जोखिम भरा है और इस पर इक्का-दुक्का लोग ही चलते हैं। कवि को दोनों रास्ते बुला रहे हैं और कवि सोच में डूबा हुआ है। कवि कामवाली छोटी लड़की का चित्रण करता है और उसके घर के बारे में सोचता है जो है भी या नहीं। वह कहता है कि उस आदमी की मृत्यु पर शौक गीत लिखना, जिसने कभी भी अच्छा काम नहीं किया अंतरात्मा के पन्ने पर शौक गीत लिखना है।
          कवि को लगता है कि कमरा कभी खाली नहीं होता, वह अतीत की बातों को सहेजकर रखता है। यहाँ-यहाँ हम जाते हैं वहाँ के मिट्टी, स्वाद, भूख सब हममें रच-बस जाते हैं। कवि के साथ भी ऐसा ही हुआ है। घर वापसी पर दरवाजा तो खुला है, मगर वह चौखट पर रुक जाता है, ताकि बाहर की चीजों को घर में न आने दे। कवि के अनुसार हम बाहर की दुनिया से कितना भी कटना चाहें यह पूर्णतः संभव नहीं। बन्द खिड़की की दरारों से हवा भीतर आ ही जाती है और वह साथ लाती है बाहर की दुनिया की खबर। 
      कवि जंगल को अपने भीतर भरना चाहता है। वह नचिकेता की पीड़ा को महसूस करता है। उसके अनुसार सूरज से दोस्ती की कीमत हाथ जलाकर चुकानी पड़ती है। उसको अपना चित्र अपना नहीं लगता। उसके हाथ से छिटककर गिरी चीजों में बातें भी हैं और अब वे आपस में घुल-मिल गई हैं। वह अंबर, सीप, देहरी धरे दीप, लव-कुश के गीतों का जिक्र कर उनके अधूरे रह जाने की बात करता है। आदमी की तुलना कैक्टस से करते हुए वह आदमी को कहता है-
"तुम्हारे पास थे / धूप-मिट्टी-पानी-हवा /
बस काँटे नहीं थे / और / न उनके साथ रहने का सलीका /
फिर कैसे खिलते फूल" (पृ. - 37)
        प्रेम भी कविता का विषय बना है। वह प्रियतम का चेहरा चमकता देखना चाहता है, इसके लिए वह चाँद से भी सिफारिश करना चाहता है, तो चित्रकार से भी। जब प्रेमिका को कवि के सुंदर कहने पर यकीन नहीं और वह दर्पण से पुष्टि करना चाहती है, तब वह कहता है-
"अब क्यों / तुम्हें /
दर्पण की गवाही चाहिये!" (पृ. - 52)
प्रेमिका के घर बदल लेने पर भी वह उसी घर को देखने जाता है और उसकी परछाईं को वहाँ पाता है।
          प्रेमियों के मांसल प्रेम का चित्रण भी कवि ने किया है। कवि को वह तारीख याद है जिस बारिश के दिन उसने प्रेमी युगल को देखा था। कवि उनके कृत्यों को चित्रित करता है-
"वे दोनों / दीवार पर धीरे-धीरे सरकती छिपकली ज्यों- /
मच्छर का साधे निशाना / झपटने पर गिर पड़े नीचे फर्श पर" (पृ. - 75)
कवि को प्रियतम के जाने पर चिंता नहीं होती क्योंकि उसे विश्वास है कि जहाज के पंछी की तरह तुम लौट आओगे। उसके अनुसार बारिश में घास पुनः उग आता है और कुकनूस अपनी राख से जी उठता है। 
            कवि कविता के माध्यम से दिल की बात कहना चाहता है, लेकिन सफल नहीं होता इसलिए वह चाहता है-
"यूँ करें / मैं कहूँ तुमसे / अपनी बात /
और तुम / उस पर रचो कविता" (पृ. - 70)
पाठक के रूप में वह पाता है कि हर रचनाकार अपने कसीदे पढ़ता है और पाठक की आलोचना करता है। कवि इसी संदर्भ में जब खुद को देखता है तो कलम की स्याही सूखी पाता है। वह सवाल भी करता है-
"कौन लिखेगा कविता / प्यार-प्रीत की" (पृ. - 72)
'आवाज़' को लेकर कवि ने दो कविताएँ लिखी हैं। पहली कविता में कवि के भीतर वे आवाज़ें शोर मचाती हैं, जिन्हें उसने समय-समय पर दबा रखा है, जबकि दूसरी कविता में वह आवाज़ों में बहुरूपिये को देखता है। 'कली के फूल' शीर्षक से भी दो कविताएँ हैं। पहली कविता में प्रेमिका की छुअन मात्र से प्रेमी कली से फूल बन जाता है, जबकि दूसरी कविता में कवि कविता में सुधार करता रहता है, ताकि वह कली से फूल बन जाए। पुस्तक का शीर्षक बनी कविता में वह फरहाद और दशरथ मांझी के प्रसंग को लेता है और उनसे लग्न और साहस लेकर नदी निकालता है। अंतिम कविता कवि के कमजोर पड़ती याददाश्त को इशारा करती है और इस उम्र में अब दवाई ही जीवनदायिनी है। 
     कविताएँ कहने के लिए कवि ने भाषायी आडम्बर को अपनाने की बजाए इसे सरल भाषा में कहा है। अलंकारों, प्रतीकों का सहज प्रयोग हुआ है। प्राचीन प्रसंगों का सहारा लिया है। नई दृष्टि भी दी है, यथा प्रेमिका को कली से फूल बनाने की बजाए प्रेमी को कली से फूल बनाया है। विभिन्न दार्शनिकों के मतों का वर्णन करते हुए अपने ढंग से जीने की बात कही है। कोरी कल्पना की बजाए कड़वे सच को अहम कहा है। संक्षेप में, कवि की जीवन दृष्टि इन कविताओं में परिलक्षित होती है।
©दिलबागसिंह विर्क


2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

सुन्दर समीक्षा।
लेखक और समीक्षक को प्रणाम।

मन की वीणा ने कहा…

गहन पठन के बाद सुंदर समीक्षा कविताओं पर आकर्षण बढ़ाती सुंदर समीक्षा।

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