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बुधवार, अप्रैल 08, 2020

समाज, राजनीति, सोशल मीडिया का सच दिखाती लघुकथाएँ

लघुकथा-संग्रह - फिर वही पहली रात लेखक - विजय विभोर प्रकाशक - लेखक स्वयं पृष्ठ - 112 कीमत - ₹150/-
"फिर वही पहली रात" लघुकथा-संग्रह युवा लेखक विजय विभोर की कृति है, जिसे उसने खुद प्रकाशित किया है। इस संग्रह में 92 लघुकथाएँ हैं, जिनमें कुछ दो पृष्ठ तक का विस्तार लिए हुए हैं, तो कुछ दो पंक्तियों की हैं। लम्बाई महत्त्वपूर्ण नहीं, महत्त्वपूर्ण होता है कथानक और इसका प्रस्तुतिकरण। लघुकथा में एक ही प्रसंग होता है। अन्य कोई भी बात लघुकथा में शामिल करने से इसमें फालतू का विस्तार हो जाता है, जो इस विधा के दृष्टिकोण से उचित नहीं।

     इस संग्रह की कुछ लघुकथाओं में दोहरे प्रसंग हैं। "बड़े नोट" नोटबन्दी को लेकर लिखी गई है। गरीब आदमी इसमें खूब पिसा। बड़े लोगों से बैंक वालों का व्यवहार अलग होता है, यह दिखाने का प्रयास है, लेकिन जो मूल विषय है, उसको देखें तो बैंक वाले भी मजबूर रहे होंगे। जब छोटे नोट होंगे ही नहीं तो वे देंगे कैसे। अमीरों को भी बड़े नोट ही दिए होंगे, भले उन्हें कतार में न लगने दिया गया हो, इसलिए मैनेजर साहब को फोन पर बातचीत करते दिखाए जाने की ज़रूरत नहीं थी। "पुत्र फल" लघुकथा में भी दो विषय हैं। पहला प्राइवेट अस्तपाल में डिलिवरी ऑपरेशन से करने का, जो मुख्य विषय नहीं। दूसरा भ्रूण हत्या के बाद पैदा हुए विकृत बच्चे के जन्म लेने को कुदरत का न्याय कहा गया है। "रूह-प्रेम" बेवफाई को लेकर है। इसमें दो अलग-अलग समय के प्रसंग है, जिसे लघुकथा के कुछ समीक्षक काल दोष मानते हैं। इस दोष को शर्मीली की कथा से शुरु करके रूही की कथा याद करते हुए समाप्त किया जा सकता था। 
    लघुकथा क्योंकि कथा का ही एक रूप है, इसलिए इसमें कथानक होना अनिवार्य है। विजय विभोर की कुछ लघुकथाएँ महज विचार हैं, उनमें कथा नहीं। "बदल लो" समाज सुधारक और चिंतक के अलग-अलग नज़रिये को दिखाती लघुकथा है, लेकिन कुछ अधूरी सी लगती है, क्योंकि ये दोनों विचार सर्वविदित हैं। ये लघुकथा किसी विशेष अंत की मांग करती है। "सिर का बोझ" भी पिता की सोच ही है, इसमें कथानक का अभाव है।
    कुछ लघुकथाओं में कथानक या तो अधूरा है या अस्पष्ट है। लेखक का उद्देश्य क्या है, यह समझ नहीं आता। "पागल" लघुकथा इसी श्रेणी में आती है। लेखक को दिखाना चाहिए था कि पत्रों में ऐसा क्या लिखा है, जिसने बदमाशों के मन को परिवर्तित कर दिया। "मजबूरी" लघुकथा भी स्पष्ट नहीं करती कि 2000 का नोट देखकर रिक्शे वाले को चक्कर क्यों आया। "नँगा" लघुकथा में लेखक थोड़ा भ्रमित लगा क्योंकि भरतू के नँगा कहने का अर्थ बचपन के बारे में अधिक लगता है, बचपन में बच्चे नँग-धड़ंग ही रहते हैं, रामबीर का इसे अपनी हालत से जोड़ लेना लेखक का अपना उद्देश्य हो सकता है, जो शायद पूरी तरह से उभर नहीं पाया। "हॉर्न ओके" में भी लेखक की बात स्पष्ट नहीं होती। "अन्नदाता" लघुकथा में अन्नदाता को वोट देने की बात रमुआ कहता है, जिससे जमींदार नाराज हो जाता है, लेकिन अन्नदाता कौन है, स्पष्ट नहीं। "पहले कौन" लघुकथा में सब खाना एक साथ खा सकते हैं, एक को पहले बुलाए जाने का प्रसंग क्यों उठाया गया? इसे यदि उस महिला से जोड़ा जाता, जो ठंड में खाना बना रही है तो यह एक सुंदर लघुकथा होती। "नाच" लघुकथा में लेखक जिस व्यंग्य को लाना चाहता है, वो उभर नहीं पाया क्योंकि संभव है किसी को वास्तव में ही नाचना न आता है। "गूँगे स्वर" में बहू की चीखों को फरमाइशें के नीचे दबने की बात दिखाने का प्रयास हुआ है। "बंधन" लघुकथा में झुमकी संभवतः बन्धन है। 
    कुछ लघुकथाएँ स्वाभाविक नहीं लगी। "प्लेट्स" संवाद शैली की लघुकथा है। व्यंग्य इसका उद्देश्य है, लेकिन यह स्वाभाविक प्रतीत नहीं होती। संवाद देखिए -
"भुखमरी से निपटने के लिए मैं प्लेट्स का इंतजाम करूँगा ताकि उनको साफ-सुथरे बर्तन में खाना मिल सके।" ( पृ. - 63 )
ऐसा कहने वाला सांसद सहजता से मिलना मुश्किल है। हाँ, नेताओं के बारे में ऐसे चुटकले प्रचलित कर दिए जाते हैं, शायद लेखक भी उन्हीं से प्रभावित है। "समाधान" लघुकथा भी इसी शैली की है। "लोकतंत्र" लघुकथा में प्रधान सेवक कहते हैं -
"मैं चार साल आपकी सेवा करूँगा और पाँचवें साल राजनीति करूँगा।"
ऐसा वाक्य शायद ही कोई राजनेता बोले। "व्यवहार" लघुकथा में दादा अपने पोते को धन्यवाद कहने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन अगर दादा ऐसा है तो उसे अपने पोते की भाषा को भी सुधारना चाहिए। वैसे लेखक ने पोते से जिस अंदाज से यह कहलवाया है -
"यार दादा जी! ये साले ऑटो वाले भी बड़े हरामी हैं।" ( पृ. - 53 )
वह आजकल के बच्चों की स्वाभाविक भाषा है, लेकिन लघुकथा का अंत जैसा है और दादा जिस प्रकार समझाता है और पोता जिस प्रकार बात मानता है, उस स्थिति में यह भाषा सहज नहीं। "फालतू की बकबास" किताब से प्रेरणा लेने की बात करती है, लेकिन इस लघुकथा कि यह पंक्ति विरोधाभासी है -
"ममता के शब्दों में व्यंग्य प्रतीत हो रहा था, लेकिन उसका मन किताबें पढ़ने का निश्चय कर चुका था।" ( पृ. - 34 )
यदि मन किताबें पढ़ने का निश्चय कर चुका था तो उसके इन शब्दों में व्यंग्य नहीं हो सकता -
"लगता है, मुझे भी फालतू के ड्रामे, बहस आदि देखना छोड़कर किताबें पढ़ना शुरू करना पड़ेगा।" ( पृ. - 34 ) 
"काल्पनिक" लघुकथा बहुत अधिक काल्पनिक लगी। "बोझ" अतिश्योक्ति दोष से ग्रस्त लगी। यह सच है कि आजकल बच्चों के बस्ते बहुत भारी हैं, लेकिन भीमकाय शरीर वाले भीमानन्द से भारी शायद नहीं होंगे। "शब्द" लघुकथा भाषा ज्ञान को लेकर है। हिंदी के शोधार्थी और गाइड किसी को भी शब्द नहीं आता और गूगल की मदद ली जाती है, यह हैरानीजनक है। "मीठा दर्द" लघुकथा में केशव सिर्फ इसलिए दफ्तर से दूर किराए के मकान में रहता है कि वहाँ के प्राइमरी स्कूल के लाउडस्पीकर से प्रार्थना और राष्ट्रगान की आवाज साफ-साफ सुनाई देती है। "कट पीस" लड़के की छेड़छाड़ और लड़की का बहन निकलना के परम्परागत विषय को लेकर कही गई है, लेकिन लड़के को स्कूटी की पहचान क्यों नहीं थी यह समझ नहीं आया। "जिगरा" लघुकथा दहेज के विरोध को दिखाती है, लेकिन इस पंक्ति का आशय स्पष्ट नहीं है -
"तभी दूल्हे को एक झटका-सा लगा। वह ख़्यालों की दुनिया से बाहर आया।"
दूल्हा ख़्यालों की दुनिया में है, ऐसा न तो दिखाया गया है और न ही ऐसा प्रसंग है, जिससे वह ख़्यालों में हो। दरअसल वह तो दूसरों को झटका देने का काम कर रहा है। "परीक्षा" लघुकथा का विषय बताता है कि अस्पताल की कामयाबी और मानव कल्याण अलग-अलग चीजें हैं, जबकि अस्पताल भी मानव कल्याण का साधन हो सकता है। "शर्तिया" एक आदर्शवादी लघुकथा है, इसमें सास-ननद बेटा-बेटी में फर्क नहीं समझती जबकि पति बेटे की चाह में पत्नी को दवाई खिलाना चाहता है। सामान्य जीवन में ऐसा कम ही होता है। अक्सर सास दवाई खिलाती है। पति कभी विरोध करता है, कभी नहीं, लेकिन लेखक ने अलग नजरिये को अपनाया है। 'फ्रेंड रिक्वेस्ट" के अंत को लेखक ने जानबूझकर अधूरा छोड़ा है, लेकिन इससे लघुकथा ही अधूरी सी रह गई प्रतीत होती है क्योंकि लेखक का व्यंग्य स्पष्ट नहीं हो पाया है। "दहलीज" लघुकथा प्राची की दुविधा को तो दिखाती है, लेकिन किसी निष्कर्ष तक पहुँचते उसे नहीं दिखाया गया। "फिलॉस्फर" लघुकथा में किसी छात्र के खुद को भारतवासी कहने पर प्रोफेसर द्वारा मजाक उड़ाए जाने को लेकर है, यह विषय आकर्षक लगता है, लेकिन इसके दूसरे पहलू पर भी विचार होना चाहिए। अगर सभी खुद को भारतवासी कहकर परिचित करवाएँ तो अलग-अलग पहचान कैसे होगी। 
   कुछ लघुकथाओं के शीर्षक कथानक से मेल नहीं खाते। "गुरु जी गरूर जी" शीर्षक में गुरूर जी क्यों है, कुछ स्पष्ट नहीं हुआ क्योंकि गुरु कोई गुरूर नहीं दिखा रहा। वह सही मूल्यांकन कर रहा है और उसका गलतियों के लिए लगाए दायरे मिटाना भी गलत नहीं। यह लघुकथा सोशल मीडिया पर हो रही झूठी वाहवाही को दिखाती है और इसे देखकर अगर महक सिंह सही प्रतिक्रिया देने से घबरा गया तो कोई हैरानी नहीं। "पिंजरे" लघुकथा का शीर्षक भी कुछ स्पष्ट नहीं है, हालांकि यह लघुकथा पुरुषों की मानसिकता को बखूबी दिखाती है। "आदती-सी" पत्रकारिता के सच को दिखाती है, लेकिन इसका शीर्षक कुछ अटपटा-सा लगा।
     पुस्तक के शीर्षक से जुड़ी दो लघुकथाएँ हैं। एक "पहली रात" और दूसरी "फिर वही पहली रात"। इन शीर्षकों के आधार पर इन दोनों लघुकथाओं को एक श्रृंखला के रूप में होना चाहिए था। "पहली रात" में शादी के समय की रात का प्रसंग लिया जाना चाहिए था और फिर वही रात में जो लघुकथा इस शीर्षक से दी गई, वही होती लेकिन लेखक ने अलग-अलग शीर्षक से लगभग एक-सी लघुकथा दे दी। दोनों में बुजुर्ग दम्पति को बच्चों द्वारा घर से निकाले जाने के बाद एक साथ पहली रात मनाते दिखाया गया है और वे अपने मिलन की पहली रात को याद कर रहे हैं। एक ही प्रसंग को लेखक ने दो बार क्यों लिखा, यह स्पष्ट नहीं।
     इन कुछ एक लघुकथाओं को छोड़कर काफी लघुकथाएँ ऐसी हैं, जो सोचने को विविश करती हैं। कुछ लघुकथाओं में व्यंग्य है तो कुछ सकारात्मक सोच लिए हुए हैं। संग्रह की शुरूआत एक सकारात्मक सोच वाली लघुकथा से होती है। आजकल गुरु के लिए नवयुवकों में कोई सम्मान की भावना नहीं, यह शिकायत आम है, लेकिन "अनोखा एकलव्य" इसके विपरीत दिखाती है कि आजकल भी ऐसे युवक हैं, जो उनको सम्मान देते हैं, जिनसे उन्होंने कुछ सीखा हो। युवक ने लेखक से प्रत्यक्ष नहीं सीखा, इसलिए वह एकलव्य ही है और अच्छी बात ये है कि लेखक द्रोणाचार्य नहीं बनता, अपितु उसे पैन भेंट करता है। ऐसी ही सकारात्मक सोच कुछ अन्य लघुकथाओं में भी है। "कनागत" लघुकथा में लेखक उन रीति रिवाजों को उचित ठहराता है जिन्हें लोग अंधविश्वास मानते हैं। "घर की रौनक" लघुकथा एक सुलझे हुए ससुर का चित्रण करती है और बताती है कि बहू को बेटी समझा जाना चाहिए, क्योंकि वही घर की रौनक है।
     "आदम जात" लघुकथा खबरिया चैनलों की सोच को दिखाती है, साथ ही यह गरीब महिला की दरियादिली को भी इंगित करती है -
"हमरे झौंपडे में कुत्ता, बिल्ली… सबका बच्चा पलत रहीन। फिर इ तो आदम जात है।"
"आदत" लघुकथा पति-पत्नी के संबंधो की सटीक व्याख्या करती है। "आउट डेटड" धर्म के बाज़ारीकरण पर प्रहार करती है। "खामोश शोर" लघुकथा बुढ़ापे के समय बेटों के व्यवहार को दिखाती है, यह लघुकथा यह भी बताती है कि जिसे हम अच्छा समझते हैं वो अच्छे नहीं होते और जिन्हें हमने गलत समझा होता है, वही मुश्किल वक्त में काम आते हैं ।
"निकम्मे" लघुकथा बेरोजगारी के अनेक कारणों में से एक कारण को उजागर करती है -
"जब तुम जैसे लोग इस उम्र में भी दो-दो जगह नौकरी करके नौजवानों के रोजगारों पर कुंडली मारेंगे, तो उस जैसे नौजवानों को निकम्मे का ठप्पा लगवाकर दूसरे पर आश्रित रहना ही पड़ेगा…" ( पृ. - 28 )
यह बात री-इम्प्लॉइमेन्ट की उस योजना पर गहरा व्यंग्य करती है, जो इन दिनों सरकार ने अपनाई हुई है। "फरारी" लड़की के भागने की कहानी है। पहले बुआ प्रेम के लिए और अब भतीजी पढ़ाई के लिए घर से फरार होती है। भतीजी खुद को फरारी को अपनी बुआ की फरारी से बेहतर बताती है। "बड़े साहब" में होमगार्ड वाले को बड़े साहब कहते ही वह ऑटो वाले को छोड़ देता है। "रक्षा समिति" बदलते दौर को दिखाती लघुकथा है। पहले गाय की रक्षा हेतु प्रयास होता था, जबकि आजकल कुत्तों की रक्षा के लिए। "कौन भिखारी" लघुकथा में बेटा बाप को अच्छा सबक सिखाता है। इस लघुकथा का अंत इसे सार्थक लघुकथा बनाता है। "एडिटर्स चॉयस" स्टूडेंट्स की मैगजीन में स्टूडेंट्स एडिटर की टीचर के लेख छापने की मजबूरी को दिखाती लघुकथा है। "अनुपयुक्त" लघुकथा बताती है कि सिर्फ अच्छे अंक होना ही काफी नहीं। प्राइवेट सेक्टर में अंक नहीं समर्पण नौकरी दिलवाता है। "जड़" लघुकथा बताती है कि किस प्रकार रिश्वत की आदत विकसित होती है। "ऐतराज" लघुकथा नौकरीपेशा महिला के दर्द को दिखाती है। "हालात" लघुकथा दिखाती है कि अपने किये बुरे व्यवहार के लिए कभी-न-कभी शर्मिंदगी उठानी ही पड़ती है। "कल्याणी" लघुकथा में पतियों के भिन्न-भिन्न स्वभाव को दिखाया गया है। लघुकथा "भागेदारी" शिक्षा प्रसार की बात करती है। अब हर कोई पुश्तैनी धंधे से बंधे यह ज़रूरी नहीं, यही संकल्प दिखाती लघुकथा है, "चाक की बेड़ियाँ"। "बधाई हो" बिना सूचना के लघुकथा पर शार्ट फ़िल्म बनाए जाने के प्रसंग को लेकर है। "काबिलियत" उन लोगों की पीड़ा को व्यक्त करती हैं, जिनके पास हुनर तो है, लेकिन डिग्री नहीं है। "जीवन जीर्णोद्धार" लघुकथा शिक्षा का मंदिर स्थापित करने को दिखाती है। "काबिल" लघुकथा साहित्यिक क्षेत्र में पुरस्कारों का सच दिखाती लघुकथा है। "पेटेंट" लघुकथा का उद्देश्य यह बताना है कि अम्बेडकर का उद्देश्य समता मूलक समाज की स्थापना है लेकिन कुछ लोग अपने स्वार्थ के लिए इसके मनमर्जी के अर्थ निकाल लेते हैं। "छुपन-छुपाई" घर से निकाली गई वृद्धा के दुख को बयान करती लघुकथा है। "किताबी बातें" लघुकथा बताती है कि किताबों से सीखी अच्छी बातें बड़े होने पर भूल जाती हैं। रोहन अपने बेटे से प्रभावित होकर फिर बचपन वाले जीवन को जीना चाहता है। "ना मालूम अफ़राद" लघुकथा छोटी-छोटी बच्चियों के साथ होने वाले बलात्कार की समस्या को उठाती है। "फल" लघुकथा फलहीन पेड़ और काम-धंधा न करने वाली औलाद की तुलना करती है। "मन का भँवर" सपने के माध्यम से पुरुष की सोच को दिखाती है। "बस ख्याल रखना" लघुकथा में लोगों की सोच को दिखाया गया है-
"अपनी जाति को आगे बढ़ाने का मौका मिला है। अपनी जाति के लोगों का बस ख्याल रखना।" ( पृ. - 77 )
"दोहराव" लघुकथा बच्चों के अपने माँ-बाप को सताने के प्रसंग को लेकर इस सर्वमान्य सत्य की उदघोषणा करती है -
"समय अपने को दोहराता है, बस पात्र बदलते हैं।" ( पृ. - 78 )
     "जरा संभल के" लघुकथा फेसबुक पर लाइक, कमेंट के सच को दिखाती है। "टाइम कहाँ है" लघुकथा भी सोशल मीडिया पर लाइक के सच को दिखाती है। "निज़ात" सोशल मीडिया और नए लेखकों का सच बताती है। "प्रोफ़ाइल पिक" भी सोशल मीडिया को लेकर है। "नया नशा" में लेखक ने मोबाइल की तुलना नशे से की है।
    "दरम्यान" प्रेमी युगल का चित्रण है, जिनका प्रेम एक दूसरे को देखने भर तक सीमित है। "मेला" बड़े लेखकों के नवोदितों के प्रति नजरिये को दिखाती है। "शक के बीज" लघुकथा लोगों की बातों से फैलते अंधविश्वास को दिखाती है। "मिट्ठू" मी टू के प्रसंग को लेकर रची गई है। "बोहनी" लघुकथा पूर्वाग्रह को दिखाती है, साथ ही संदेश देती है कि सभी पुलिस वाले बुरे नहीं होते। "चुभन" लघुकथा बताती है कि जब लड़की जवान हो जाए तो घर में महफिलें जमाना बन्द हो जाना चाहिए। "मंज़िल" लघुकथा राजनीति पर आधारित है। नेता तो लोगों के ज़रिए अपनी मंज़िल हासिल कर लेते हैं, लेकिन जनता को उसकी मंज़िल तक पहुँचाने वाला कोई नहीं मिलता। "आधा गिलास" सद्दाम हुसैन के माध्यम से राष्ट्रवाद पर प्रहार करती है। "बाबू जी" लघुकथा देशभक्ति के गाने चलने के कटु सच को उदघाटित करती है। "महत्त्व" एक तरफ आधुनिक बच्चों को दिखाती है, वहीं बताती है कि पिता के लिए बेटे कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं। "फैसले" लघुकथा नेताओं की करनी और कथनी के अंतर को दिखाती है। "पोटली" लघुकथा बेटों की बेरुखी और अनजान लोगों द्वारा की जाने वाली मदद को दिखाती लघुकथा है। "बदलाव" लघुकथा प्रधान बनने के बाद आए बदलाव को दिखाती है। "संगत की रंगत" झूठ बोलने के कारण को दिखाती है, लेकिन यह कारण संगत नहीं। "अश्लीलता" लघुकथा में पहनावे से ज्यादा गाली-गलौच को अश्लील कहा गया है। "नवनिर्माण" लघुकथा में गहरा व्यंग्य है। चुनावों में अक्सर नेता बिक जाते हैं। "प्रश्न" लघुकथा लोगों की उस सोच को दिखाती है कि लेखक होना कोई बड़ी बात नहीं, उसे कोई काम तो करना चाहिए। "नज़र" लघुकथा एक बिंदास लड़की को दिखाती है। "रंग" लघुकथा साम्प्रदायिकता को दिखाती है।
       एक लेखक अपने समय में चल रहे साहित्यिक आंदोलन से प्रभावित होता ही है, चाहे वो कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो। वह किसी-न-किसी रूप में उन पर विचार अवश्य करता है। विजय विभोर भी इससे अलग नहीं। इस संग्रह में उन्होंने लघुकथा को लेकर लेखकों और आलोचकों का नजरिया दिखाया है। लघुकथा को लेकर साहित्य में जबरदस्त विरोधाभास है, लिखने वाले नियम-कायदों को माने बिना धड़ाधड़ लघुकथा लिख रहे हैं तो आलोचक लघुकथा में अनेक दोष देखकर किसी को लघुकथा मानने को तैयार नहीं। इसी प्रसंग को पति-पत्नी के संवाद में दिखाया गया लघुकथा "कुल्हड़ में हुल्लड़" में। इसमें बेटी का कृत्य भी महत्त्वपूर्ण है, जो लघुकथा में कैसे विषय ढूँढे जाए, इस बात को दिखाता है।
    विषय की दृष्टि से लेखक ने समाज, राजनीति, सोशल मीडिया आदि तमाम विषयों को अपनी लघुकथाओं का आधार बनाया है। भाषा की दृष्टि से लेखक ने पात्रानुकूल और विषयानुरूप भाषा को चुना है। संक्षेप में, लेखक का प्रयास सराहनीय है और यह संग्रह लघुकथा के विकास में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करेगा।
©दिलबागसिंह विर्क

3 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…


जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा गुरुवार(०९-०४-२०२०) को 'क्या वतन से रिश्ता कुछ भी नहीं ?'( चर्चा अंक-३६६६) पर भी होगी।

चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी

Onkar ने कहा…

सुन्दर समीक्षा

अनीता सैनी ने कहा…

निष्पक्ष समीक्षा। सराहनीय, आज साहित्य ऐसे ही समीक्षक तलाश रहा है।
बधाई।

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