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रविवार, अप्रैल 19, 2020

रिश्तों के सच को दिखाती कहानियों का संग्रह

कहानी-संग्रह - रिश्तों का एहसास
लेखिका - सुरेखा शर्मा
प्रकाशन - समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद
कीमत - ₹150/-
पृष्ठ - 100
समन्वय प्रकाशन, गाजियाबाद से 2011 में प्रकाशित कहानी-संग्रह "रिश्तों का अहसास" की लेखिका हैं, 'सुरेखा शर्मा'। नाम के अनुरूप इस संग्रह की कहानियाँ समाज में व्याप्त रिश्तों को लेकर रची गई हैं। वृद्ध माता-पिता के प्रति व्यवहार, सास-बहू और पति-पत्नी के संबन्ध प्रमुखता से बयान हुए हैं। खून के रिश्तों के अतिरिक्त मानवता के नातों का भी बयान है। रिश्तों का कुरूप और सुंदर पक्ष, दोनों को लेखिका ने बड़ी खूबसूरती से बयान किया है। 
           सास-ससुर के प्रति बहू का नजरिया और बेटे की बेबसी और चुप्पी कई कहानियों का विषय बनी है। 'जीवन-संध्या' कहानी में बहुओं द्वारा सताई जाने वाली सास को दिखाया गया है, लेकिन सास कमजोर नहीं पड़ती, अपितु अपने बेटों और बहू को उनकी औकात दिखा देती है। इस कहानी में पोती कथावाचक है और वह भी दादी के फैसले से खुश है। कहते हैं औरत ही औरत की दुश्मन होती है। यह बात इस कहानी से सिद्ध होती है, इसके अतिरिक्त अक्सर बहू की माँ घर के माहौल को खराब करने में महत्त्वपूर्ण रोल अदा करती है, इस कहानी में भी ऐसा ही होता है-
"नानी मम्मी को कहती रहतीं कि तू अपनी सास को छोटे बेटे के पास क्यों नहीं भेज देती, सारा दिन घर में मनहूसियत-सी छाई रहती है।" (पृ. - 19 )
यूँ तो कहा जाता है कि बेटियाँ बेटों से अच्छी होती हैं, लेकिन यह भी सच है कि बेटे भी बहुओं के आने के बाद ही बुरे होते हैं। इस कहानी में इसे भी स्पष्ट किया गया है-
"एक समय था जब दादी के दोनों बेटों के बारे में कहा जाता था कि बेटे हों तो ऐसे। पापा व चाचा दोनों ही होनहार व आज्ञाकारी बेटे कहलाते थे, पर आज दोनों ही अपनी आँखों के सामने अपनी ही माँ को अपमानित होते देखते रहते थे।" (पृ. - 20)
इसी विषय और इसी शैली में लिखी गई एक अन्य कहानी है, 'दादी'। यह दादी भी इकलौते बेटे-बहू द्वारा त्यागी गई है, लेकिन इस कहानी में उसकी देखभाल गाँव के किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जाती है। बेटा अपनी माँ को अपने पास बुला तो लेता है, लेकिन बहू के डर से उसे अपने पास न रखकर क्वार्टर में रखता है। 'स्वार्थी रिश्ते' कहानी बहू के स्वार्थीपन को दिखाती है। बहू सास को इसलिए पास रखना चाहती है कि वह उसकी बेटी को संभाल लेगी। यह कहानी परोक्ष रूप से नौकरीपेशा औरतों की समस्या को भी प्रकट करती है। लेखिका का मत है-
"औरत के जीवन में वैसे तो गृहस्थी व नौकरी एक साथ नहीं चल सकती, लेकिन आज के युग मे पति-पत्नी दोनों के लिए काम करना ज़रूरी-सा हो गया है।" (पृ. - 40)
            हमारे समाज में ऐसा आम है, कि बहू-बेटा सास-ससुर को जीते जी पूछते नहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद खूब आडम्बर किये जाते हैं। दिखावे की इस प्रवृत्ति को कहानी 'दिखावा' का विषय बनाया गया है। मिसेज शर्मा अपने ससुर की बरसी धूमधाम से मनाती है, जबकि अंतिम दिनों मे उसकी स्थिति यह है, कि वह कह उठता है-
"सुभी बेटा, अब तो बुलावा आ जाए, भगवान के घर से बस। बहुत दुनिया के रंग देख लिए। अब जीने की इच्छा नहीं रही।" (पृ. - 29)
अगर हर कहानी में बहू ही बुरी हो तो कहा जा सकता है कि यह रचनाकार का पूर्वाग्रह है, लेकिन सुरेखा शर्मा इस पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। सास भी बुरी हो सकती है यह दिखाती कहानी है, 'मुखौटा'। इस कहानी की पात्र श्रीमती दीक्षित सिर्फ बुरी सास ही नहीं, अपितु एक गैर जिम्मेदार पत्नी भी है। बतौर दीक्षित -
"वे शुरू से ही महत्त्वाकांक्षिणी रही हैं। एक साधारण महिला की तरह जीवन व्यतीत करना उन्हें मंजूर नहीं था। वे हमेशा अपनी प्रसिद्धि पाने में ही लगी रहतीं।" (पृ. - 68)
महत्त्वकांक्षी होना, प्रसिद्धि की चाह रखना बुरा नहीं, लेकिन इसके लिए पत्नी के दायित्व को छोड़ देना बुरा है। पूरी कहानी उसके दोहरे चरित्र को उदघाटित करती है। जिला महिला अध्यक्ष होकर उसकी यह सोच उसके दोहरे चरित्र को ही दिखाती है-
"अच्छा, अब इसकी तरफदारी करेगा, जोरू का गुलाम जो बन गया है।" (पृ. - 71)
इस कहानी में माँ के चोरी-छुपे बेटी के नाम वसीयत लगाने की समस्या को भी उठाया गया है, हालांकि बेटा इसका विरोध नहीं करता, लेकिन वह दुखी होता है। समाज में अक्सर ऐसी घटनाएँ बड़े विवाद को जन्म देती हैं। माँ-बाप के स्वार्थ को भी लेखिका ने दिखाया है, कहानी 'नई दिशा' में। सुलक्षणा कहती है-
"अभी तक तो यह सुनती आई थी कि सन्तान स्वार्थी हो सकती है माता-पिता नहीं। पर यहाँ तो उल्टी ही गंगा बह रही है।" (पृ. - 76)
माँ के स्वार्थ को उसके इन शब्दों में साफ देखा जा सकता है-
"अरे, क्या तुम पागल तो नहीं हो गए, जो दूध देने वाली गाय को घर से विदा कर रहे हो?" (पृ. - 78)
माँ का यह रूप सहज स्वीकार्य तो नहीं, लेकिन इस संसार में मानव के अनेक रूप विद्यमान हैं, अतः कोई माँ ऐसी हो सकती है, इसे माना जा सकता है। बेटे, बेटी को लेकर अलग-अलग नियम हैं, मान्यताएँ हैं इसे भी इस कहानी का विषय बनाया गया है। सुलक्षणा कहती है-
"बेटे के गैर-जाति की बहू लाने में कोई एतराज नहीं था, परन्तु बेटी के लिए गैर-जाति में विवाह करना समाज में नाक कटने के समान था।" (पृ. - 77)
हालांकि ये पंक्तियाँ गलत स्थान पर कही गई लगती हैं, क्योंकि यहाँ तक तो बेटी के गैर जाति में विवाह करने की कोई बात नहीं आई, इसे अगर कहानी के अंत में उस समय कहा जाता जब सुलक्षणा गैर-जाति के लड़के से विवाह का फैसला करती है और माँ-बाप के चेहरे सफेद पड़ जाते हैं, तो संभवतः यह ज्यादा अच्छा होता। स्वार्थी माँ-बाप को दिखाती एक अन्य कहानी है, 'गुनहगार कौन?'। हालांकि इसमें माँ-बाप का स्वार्थ अलग तरह का है। बेटे को कैंसर है। एक बार आप्रेशन हो चुका है, इसके बावजूद वे उसकी शादी करके एक लड़की के जीवन को बर्बाद कर देते हैं। उनका तर्क उनके अंधविश्वासी होने की ओर संकेत करता है-
"यदि लड़की सौभाग्यशाली हुई तो विनोद के लिए मंगलकारी हो सकती है। पतिव्रता नारियाँ तो यमराज से भी अपने पति को वापस ला सकती हैं।" (पृ. - 99)
             औरत मन को समझने और देखने की कोशिश भी अनेक कहानियों में हुई है। 'रिश्तों का एहसास' कहानी माँ की मृत्यु के बाद बेटी की दशा और रिश्तों में आते बदलाव को दिखाती है। लेखिका कहती है-
"एक इंसान के चले जाने से कितना कुछ बदल जाता है। आज घर में सभी हैं पर माँ के न होने से घर बिल्कुल सूना हो गया है।" (पृ. - 57)
कहा जाता है कि माँ के बिना मायका मायका नहीं रहता, लेखिका भी लिखती है-
"आज उस पराये घर को अपना घर मानना पड़ा और अपना ही घर पराया हो गया।" (पृ. - 57)
हालांकि लेखिका की भाभी कहती है-
"कभी-कभी बच्चों को लेकर आती रहना, माँ नहीं रही तो क्या, हम सब तो हैं और मायका तो भाई-भाभियों से ही होता है।" (पृ. - 58)
'जीवन आहुति' एक विधवा औरत के दुखों की दास्तान है। लेखिका कहती है-
"अकेली औरत की भी कोई ज़िंदगी है? न किसी से बात कर सकती है, न कहीं आ-जा सकती है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना भी वह नहीं कर सकती। यदि किसी से कोई छोटी-मोटी सहायता ले ले तो वह भी सबकी आँखों मे खटकने लगता है।" (पृ. - 50)
औरत को बदनाम करने वालों में पुरुष भी होते हैं और स्त्रियाँ भी, लेकिन ज्यादातर यह काम स्त्रियों द्वारा ही किया जाता है। उमा के माध्यम से लेखिका ने यही दिखाया है- 
"पहले वह सोचती थी कि अकेली औरत को पुरुष जाति से ही खतरा होता है, पर अब समझ में आया कि किसी को भी बदनाम करने में औरतों का ही सबसे बड़ा हाथ होता है।" (पृ. - 52)
यह कहानी तमाम विपरीत परिस्थितियों में जूझती उमा का चित्रण है। उमा ज़िन्दगी का बड़ा हिस्सा दिलेरी से जीती है, लेकिन इस कहानी का अंत जिस रूप में हुआ है, वह उमा के स्वभावानुसार नहीं है। 'सज़ा' कहानी में पति के दुर्व्यवहार को विषय बनाया गया। पुरुष जाति के व्यवहार को दिखाया गया है-
"शायद मर्द जाति यही समझती है कि औरत को जब चाहो पैर की जूती समझो, जब चाहो खेलने के लिए खिलौना। पुरुष हमेशा उसे अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखना चाहता है।" (पृ. - 63-64)
पुरुष की सोच भले बहुत न बदली हो, लेकिन हालात बदल गए हैं। आज की स्त्री इससे विद्रोह कर रही है। इस कहानी में भी स्त्री के स्वाभिमान को दिखाया गया है। बीस वर्ष बाद पति को गलती का अहसास होता है, लेकिन उसकी पत्नी उसे माफ करने की अपेक्षा उससे तलाक माँगती है। इस कहानी में अकेली औरत की समाज में स्थिति पर भी टिप्पणी है-
"वैसे भी समाज अकेली औरत को इज्जत से कहाँ रहने देता है? सभी अपने-अपने ढंग से सहायता करना चाहते हैं। उनकी सहायता करने के पीछे उनका क्या स्वार्थ छिपा रहता है, मैं अच्छी तरह वाकिफ थी।" (पृ. - 64)
           'अनुराधा' कहानी समाज के कुरूप पक्ष को दिखाती है। अनुराधा एक विधवा है और उसकी इज्जत उसी के ससुराल पक्ष वालों द्वारा लूट ली जाती है। इस कहानी का दूसरा पहलू यह है कि वह अपने पति की मृत्यु के बाद पति के चचेरे भाई कृष्णकांत से प्यार करने लगती है। कहानी का घटनाक्रम अनुराधा के दुखों को दिखाता है, मगर अंत सुखदायक है। 'और गुलाबो मर गई' कहानी पुरुषों की हैवानियत को दिखाती है। पुरुष असहाय औरत को अपनी हवस का शिकार बनाने से नहीं चूकते। इस कहानी में पुरुषों की हवस का शिकार बनती है - गुलाबो। गुलाबो इस हादसे के बाद पागल हो जाती है। गुलाबो का बेटा देश के लिए शहीद हुआ है और उसकी हालत दयनीय है, यह बताता है कि देश अपने शहीदों के परिवारों का ख्याल नहीं रखता। रिश्तेदार भी तभी तक रिश्तेदार हैं, जब तक आप सम्पन्न हैं। हालात आपके विरुद्ध हुए नहीं कि रिश्तेदार कन्नी कतरा गए-
"इसी शहर में उसकी बहन व उसके बेटे-बहू रहते थे, परन्तु उसे उन्होंने पहचानने से भी इंकार कर दिया।" (पृ. - 23)
यह कहानी थोथी इंसानियत को भी दिखाती है- 
"जीते जी वह सर्दी से ठिठुरती थी और मरने के पश्चात उसे गर्म दुशालों से ढका गया। जब तो किसी सेठ या सेठानी ने उसे पुरानी शाल भी ओढ़ने को नहीं दी। कैसी है यह इंसानियत, जिसका ढिंढोरा आज पीटा जा रहा है ब्रह्म भोज देकर?" (पृ. - 24)
'वृंदा' कहानी कॉलेज में रैगिंग के चलते आत्महत्या करते बच्चों को दिखाती है। आत्महत्या कोई यूँ ही नहीं कर लेता। जब मानसिक पीड़ा असहनीय हो जाती है, तभी ऐसे क़दम उठाए जाते हैं। लेखिका ने आत्महत्या से पूर्व पात्र की मानसिक स्थिति का सटीक चित्रण किया है-
"कॉलेज का नाम सुनते ही उसे घृणा-सी हो गई। उसका चेहरा कभी श्वेत, कभी पीला पड़ने लगा। घबराहट के कारण उसके हाथ से चम्मच गिर गया, जिसके गिरने से दोनों चौंक पड़े तथा वृंदा की ओर देखने लगे। वृंदा उनका सामना न कर सकी और रोती हुई अपने कमरे की ओर भाग गई।" (पृ. - 26)
                नई सुबह, पश्चाताप, घरौंदे मिट्टी के, हृदय-परिवर्तन कहानियों के पात्रों में हृदय परिवर्तन दिखाया गया, जो सामान्यतः इतनी जल्दी नहीं होता, इसलिए इनको आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहानियाँ कहा जा सकता है। 'नई सुबह' कहानी में अनु का पति शराबी है, मगर वह सुधर जाता है। इस कहानी में सास-बहू और ननद-भाभी के रिश्ते भी सुखदायी हैं-
"मुझे अपनी सास में माँ का रूप ही मिला, उन्होंने मुझे भरपूर स्नेह दिया। मैंने भी उन्हें अपनी माँ ही समझा, ननदों की तरफ से भी मुझे कभी कोई परेशानी नहीं हुई।" (पृ. - 32)
'पश्चाताप' कहानी नौकरों के प्रति मालिकों के पूर्वाग्रहों को लेकर रची गई है। नेहा के माँ-बाप का मानना है कि नौकरों के बच्चे चोर होते हैं, जबकि नेहा मम्मी की सहेली के बेटे का उदाहरण देती है। सोने की चेन के गायब होने पर दोषारोपण मुस्कान पर होता है। मुस्कान का क्या बनता, अगर धोबी चेन न लौटाता, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यहाँ धोबी भी आदर्श पात्र है, वरना वह चेन अपने पास रख सकता था। 'घरौंदे मिट्टी के' कहानी में माँ-बाप अपने बच्चे को गरीब बच्चों से खेलने से मना करते हैं, लेकिन बेटे की बातें उन्हें बदल देती हैं। 'हृदय-परिवर्तन' कहानी तो अपने शीर्षक से ही अपने अंत को बखान करती है। नीलिमा की सास नीलिमा को पसंद नहीं करती-
"सास को हरदम यही शिकायत करती रहती कि उसे सलीका नहीं काम करने का।"
बाद में सास को नाराज होने का एक कारण और मिल जाता है कि नीलिमा माँ नहीं बन पा रही। अंत में बच्चे के गोद लेने का प्रसंग है, जिससे माँ के स्वभाव में परिवर्तन होता है। इस कहानी में सास-बहू के झगड़े में बेटे की स्थिति को भी दिखाया है-
"कई-कई दिन तक शीत युद्ध चलता रहता और वह स्वयं गेंद की तरह दोनों के बीच लुढ़कता रहता।" (पृ. -89)
आग लगाने वाले कौन होते हैं, इसे भी इस कहानी में दिखाया गया है-
"जब मम्मी की बहनें आतीं तभी घर का माहौल बिगड़ जाता।" (पृ. -90)
           आदर्शोन्मुखी यथार्थ को प्रस्तुत करती एक प्रमुख कहानी है, 'बेकसूर'। इस कहानी में ईमानदार पुलिस वाले रामसिंह को रिश्वत के आरोप में आठ वर्ष निलंबित रहना पड़ता है, लेकिन अंत में वह पाक-साफ सिद्ध होता है। कहानी कड़वे यथार्थ को भी प्रस्तुत करती है। बच्चों के ये सवाल आज के दौर का प्रमुख सवाल हैं-
"मम्मी, क्या किसी को ईमानदार नहीं होना चाहिए। ईमानदार को ही सज़ा क्यों मिलती है?" (पृ. - 85)
इस कहानी में मीडिया के वास्तविक रूप को भी दिखाया गया है-
"मीडिया वालों को तो एक खबर मिलनी चाहिए, फिर देखिए मसाला डालकर उसका प्रदर्शन कैसे किया जाता है, ये तो सब जानते हैं। उन्हें किसी की भावनाओं से कुछ लेना-देना नहीं होता। उनका कार्य होता है कैसे ज्यादा-से-ज्यादा चटपटा मसाला परोसा जाए जनता के सामने।" (पृ. - 84)
            चरित्र-चित्रण के लिए लेखक जाने-अनजाने अनेक विधियों को अपनाते हैं, इनमें मुख्य हैं - लेखक द्वारा चरित्र उदघाटित करना, पात्र द्वारा खुद बोलकर अपने बारे में बताना, दूसरे पात्र द्वारा बताया जाना, पात्र के कार्य द्वारा, किसी घटना द्वारा, संवाद के द्वारा आदि। लेखिका ने इस संग्रह में इनमें से अनेक विधियों को अपनाया है। दूसरे पात्र के द्वारा चरित्र निर्माण के अनेक उदाहरण हैं। पोती अपनी दादी के बारे में कहती है-
"दादी माँ शिक्षिका की नौकरी से सेवानिवृत्त, ईश्वर में विश्वास रखने वाली पतिव्रता व साधारण स्त्री थी। ताउम्र अपने परिवार की शक्ति बनी रही। अपने दोनों बेटों को उच्च शिक्षा दिलाई। दादी की तपस्या का ही परिणाम है कि आज पापा और चाचाजी ऊँचे पद पर कार्यरत हैं।" (पृ. - 19)
पात्र खुद बोलकर अपने बारे में बहुत कुछ कह देते हैं। मिसेज शर्मा का वक्तव्य बताता है कि वह कैसी बहू है-
"है भगवान कब पीछा छुड़ाएगा हमारा इस बुड्ढे से। हमारा तो खाना-पीना ही दूभर हो गया है। भगवान इस बुड्ढे को उठा लें तो जिंदगी संवर जाए।" (पृ. - 30)
प्रकाश जोकि जज है, घर में कितना दब्बू है, उसके इस कथन से समझा जा सकता है-
"रहने दो माँ, शायद तुम्हारी बहू को अच्छा न लगे, मैं ही तुमसे आकर मिलता रहूँगा। श्वेता की सहेलियाँ आती रहती हैं, जो बहुत ऊँचे घरानों से हैं। तुम्हें देखकर पता नहीं क्या सोचेंगी?" (पृ. - 38)
संवाद के माध्यम से भी पात्रों को समझा जा सकता है। नेहा की माँ महरी से जो वार्तालाप करती है, उससे उसकी सोच को भली-भांति समझा जा सकता है-
"मम्मी ने पूछा, 'क्या यह भी काम करेगी?'
'नहीं, बहन जी, यह अकेली घर पर नहीं रह सकती।' महरी ने कहा।
'नहीं, इसे पड़ोस में छोड़कर आया कर।' मम्मी ने कहा।
'पास-पड़ोस अच्छा नहीं है, ये आपको कुछ नहीं कहेगी। मेरे काम में हाथ बंटाएगी।' महरी ने कहा।
'ठीक है, इसे कहना एक तरफ ही बैठी रहे, किसी चीज को न छुए, क्योंकि घर में चीजें बहुत महँगी हैं, कोई टूट-फुट न जाए।' मम्मी त्यौरियाँ चढ़ाकर बोली।" (पृ. - 42)
एक साथ कई पात्रों के चरित्र को भी लेखिका ने उदघाटित किया है। 'मुखौटा' कहानी का यह वक्तव्य पूरे परिवार के बारे में बताता है-
"मम्मी की और मेरी पत्नी सानिया की कभी नहीं बनी। वह हर समय उसमें कुछ-न-कुछ कमी निकालकर तानों की बौछारें करती रहतीं। ये तो भगवान का शुक्र है कि वह बहुत ही समझदार और सुलझी हुई पढ़ी-लिखी है। कभी भी मम्मी की बात का जवाब पलटकर नहीं दिया। हाँ, जब भी मम्मी सानिया को डाँटती तो हमारी प्यारी बहना आग में घी डालने का काम अवश्य करती। मैं उनके बीच में कभी नहीं आता, परन्तु मन-ही-मन दुःखी ज़रूर होता।" (पृ. - 68)
            वातावरण और दृश्यों का चित्रण इस संग्रह में कम ही है। फिर भी कई जगहों में कुछ वर्णन बड़े महत्त्वपूर्ण बन पड़े हैं। अनुराधा की ससुराल का चित्रण आगामी घटनाक्रम की पृष्ठभूमि तैयार करता है-
"अनुराधा की ससुराल में मर्यादा का भी कोई स्थान न था। ससुर, सास व बेटे-बहुओं के साथ गाली-गलौज पर भी उतर आते। कभी-भी सभी इकट्ठे होकर नाचते-गाते।" (पृ. - 45)
विवाह के माहौल का चित्रण कुछ इस प्रकार है-
"शहनाई की आवाज़ बजते-बजते एकदम से बंद हो गई। बैंडबाजे की आवाज़ नजदीक आती जा रही थी। शोर मचने लगा, बारात आ गई, बारात आ गई।" (पृ. - 74)
          अधिकांश कहानियाँ यथार्थपरक हैं। कुछ कहानियों में लेखक ने समाधान सुझाया है और कुछ कहानियों में सिर्फ समस्या दिखाई गई है उसका कोई हल नहीं बताया गया। जीवन सन्ध्या कहानी में समस्या का हल दिखाया गया है। वृंदा कहानी में समस्या को सिर्फ उठाया गया है, कोई समाधान लेखिका ने नहीं बताया। कहानी कहने के लिए लेखिका ने मुख्यतः वर्णनात्मक और आत्मकथात्मक शैली को अपनाया है। आत्मकथात्मक शैली की प्रमुख कहानियाँ हैं- और गुलाबो मर गई, दिखावा, नई सुबह, पश्चाताप, सज़ा, मुखौटा, नई दिशा, बेकसूर, गुनहगार कौन? इनमें मैं पात्र के द्वारा कहानी कही गई है, हालांकि मैं पात्र को कोई नाम दिया गया है। वर्णनात्मक शैली की प्रमुख कहानियाँ है- जीवन सन्ध्या, वृंदा, दादी, स्वार्थी रिश्ते, जीवन आहुति, घरौंदे मिट्टी के। इनमें अधिकांशतः में लेखिका ने पोती, बेटी से कहानी कहलवाई है। अनुराधा कहानी की शुरूआत वर्णनात्मक शैली में है लेकिन बाद में कृष्णकांत के द्वारा कहानी को आत्मकथात्मक शैली में कहा गया। हृदय-परिवर्तन में वर्णनात्मक और आत्मकथात्मक शैली का मिला-जुला प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं तुलनात्मक शैली का भी प्रयोग हुआ है-
"पिताजी का व दादी का खून का रिश्ता न सही पर इंसानियत का नाता ज़रूर है, जो खून के रिश्ते से बड़ा है।" (पृ. - 35)
इसके अतिरिक्त संवादात्मक शैली को भी अपनाया गया है। कहानियों में संवाद कम हैं, लेकिन यहाँ भी इनका प्रयोग हुआ है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। संवादों के द्वारा पात्रों का चरित्र निर्माण भी किया गया और कथानक को आगे भी बढ़ाया गया है। आमतौर ओर संवाद छोटे और आकर्षक हैं। 
          कहानियों के कथानक आम जीवन से लिए गए है, इसलिए सभी परिचित से है। कहानी कहने के लिए भी लेखिका ने न किसी भाषायी आडम्बर का सहारा लिया है और न ही विद्वता का। सरल भाषा में कही गई कहानियाँ बिना किसी आडम्बर के सहज रूप से आगे बढ़ती हैं। लेखिका ने प्रचलित बातों का सहारा लिया है -
"कहते हैं कि जब ज्यादा ख़ुशियाँ मिल जाती हैं तो कुदरत भी उनमें कुछ विघ्न उत्पन्न कर देती है।" (पृ. - 51)
"कहते हैं न कि समय किसी के लिए नहीं रुकता।" (पृ. - 52)
"कहते हैं न जब किसी व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक सफलता मिल जाती है तो वह स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझने लगता है। अपने आगे किसी को भी कुछ नहीं समझता।" (पृ. - 62)
"किसी ने भी कहा है, पर सच कहा है कि औरत ही औरत की दुश्मन होती है।" (पृ. - 79)
         संक्षेप में, कहानी-संग्रह 'रिश्तों का एहसास' की सभी कहानियाँ रिश्तों के विभिन्न पहलुओं को उजागर करती हैं। इन पहलुओं से पाठक वर्ग अनजान हो ऐसा भी नहीं, लेकिन इनको पढ़कर ऐसा भी नहीं लगता कि सुनी-सुनाई बातें ही दोहरा दी गई हों। प्रचलित विषय पर लिखते समय इस आरोप से बच पाना ही सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। लेखिका रिश्तों के उस सच को जिसे हम जानते हैं, पुनः बड़े सुंदर रूप से प्रस्तुत करने में पूरी तरह से सफल रही है।
©दिलबागसिंह विर्क

1 टिप्पणी:

सुरेखा शर्मा ने कहा…

अत्यंत ही सुंदर व सारगर्भित समीक्षा के लिए हृदय से आभार प्रकट करती हूं।

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