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मंगलवार, जुलाई 12, 2016

साहित्याकाश पर धूप बिखेरने की आस जगाता संग्रह

कविता संग्रह - तेरे ख़्यालों की धूप
कवयित्री - शारदा झा
प्रकाशक - क्रिएटिव कैम्पस प्रकाशन
पृष्ठ - 120 ( पेपरबैक )
कीमत -  150 /-
62 कविताओं से सजा युवा कवयित्री  ' शारदा झा ' का पहला कविता-संग्रह " तेरे ख़्यालों की धूप " में ख़्यालों की धूप भी है, प्रेम की बारिश भी है, यादों का अंधेरा-उजाला भी है, मिलन की बंसत भी है और जुदाई का पतझड़ भी ।  शब्द, कविता और जीवन पर दार्शनिक नजरिया भी अपनाया है । भले ही सामयिक हालातों का चित्रण आंशिक रूप में हुआ है, लेकिन मानव के व्यवहार पर खूब तंज कसा गया है ।
                 कवयित्री ' हम तमाशबीन हैं ' कहकर हमारी आत्मा को ललकारती है । सिर्फ़ अन्याय करने वाला दोषी नहीं होता, अपितु अन्याय देखने वाला और सहने वाला भी दोषी होता है, इसी को इस प्रकार व्यक्त किया गया है - 
नहीं है कोई शस्त्र / हाथों में हमारे / 
पर करते हैं कत्ल / सच का, मानवता का /
मौन ही तलवार / चुप्पी ही कटार / 
होते हैं सहभागी / सार्वभौमिक पाप में / (पृ. - 25 )
वह इंसान की फितरत पर ख़ुदा पर तंज कसते हुए लिखती है - 
ख़ुदा ने एक जात बनायी / इंसानी जात /
मुर्दों की, मुर्दों सी / जो चलते फिरते हैं /
साँस लेते हैं, जीते हैं / पर मरते नहीं / ( पृ. - 28 )
इतना ही नहीं वह ख़ुदा से यह सवाल भी करती है -
ऐ ख़ुदा, क्या लौटेगा कभी तू /
अपनी बनायी इस दुनिया में / ( पृ. - 29 )
वह थोथे आदर्शवादियों पर भी प्रहार करती है - 
बहुत कमजोर निकले / उनके आदर्श /
झूठ को जीते रहे / चुराते रहे आँखें /
जो भरते थे कुलांचे / अपने शब्दों से /( पृ. - 30 )
वह हुक्मरानों को आड़े हाथ लेती हुई उन्हें जमीन और असबाब को बांटने का उत्तरदायी ठहराती है, जिससे ज़िन्दगी फ़ना होती रही है । वह आदमी की दशा के लिए सिर्फ़ ख़ुदा या सरकार को ही दोषी नहीं ठहराती, अपितु आदमी की फितरत को भी दोषी मानती है - 
क्यों मनुष्य के लिए / सिर्फ़ होना ही काफी नहीं /( पृ. - 91 ) 
आदमी का अतीत और भविष्य में जीना भी उसे अखरता है और मुसीबत खुद पर आने के बाद ही जागने की प्रवृति भी । वह देश के गौरवमयी इतिहास को गीत बनाकर गाते हुए देश से प्रेम करने को कहती है क्योंकि देश के विकास में अपना भी हिस्सा होना चाहिए । देश की प्रगति उसे सब दुखों का निदान लगता है ।
                     प्रेम कवयित्री का प्रिय विषय है । वह इश्क़ और गुलाब को एक-सा पाती है । प्रकृति के नियम और प्रेम उसे समान लगते हैं । प्रेम उसे भटकने नहीं देता, यह उसी प्रकार है जैसे प्रकृति के विभिन्न तत्त्व आपस में जुड़े हुए है । उसे ऊर्जा और प्रेम एक से लगते हैं क्योंकि इनका क्षय नहीं होता, ये बस रूप बदलते हैं । प्रेम ही मन की भाषा है यह उत्तर वह एक प्रश्न के रूप में देती है - 
क्या है मन की भाषा / प्रेम की अभिलाषा /
प्रिय का आलिंगन / एक प्यारा-सा चुम्बन /
है ना यही / मन की भाषा ? ( पृ. - 31 )
                     उसका मानना है कि दोस्त रब की मेहर से मिलते हैं । तेरे और मेरे के नाते को वह कई उपमाओं में बाँधती है, कभी यह आग और पानी है, कभी दरिया और प्यास, कभी धूप और परछाई, कभी सुबह और शाम तो कभी जीवन और मृत्यु । वह प्रेमी और प्रेमिका के एकाकार होने से अलग नजरिया रखते हुए कहती है कि मैं और तुम एक नहीं, लेकिन प्रेम जिस समर्पण की मांग करता है कवयित्री उससे भी अनजान नहीं  - 
ये साँसे नाम कर दी  हैं / ऐ हमसफ़र तुम्हारे /
जब तक ज़िंदा हूँ / ख़ुद को तेरे नज़र करती हूँ / ( पृ. - 71 ) 
वह हर रास्ते पर प्रिय का साथ पाती है और ऐसे में दोनों का एक-दूसरे में डूबना सहज ही है । वह लिखती है - 
बादलों के फाहों में गुनगुनाता तेरा प्यार /
बरसती हूँ तुझ पर, मैं बनकर हरसिंगार ।( पृ. - 41 )
प्रिय की आँखों को दर्पण और उसके मन को धरातल पाकर उसका इठलाना जायज ही है । उसकी इच्छा है -
ऐ मेरे साथी, तुम रहो साथ / पत्तों की सरसराहट में /
लहरों की खिलखिलाहट में / ( पृ. - 26 )
                   इश्क़ के जगजाहिर होने को लेकर वह आँखों पर इल्जाम लगाती है - 
हम छुपाए थे सबकी नज़र से जिसे /
इश्क़ आँखों से सब वो बयां हो गया / ( पृ. - 87 )
लेकिन कई बार इश्क़ की खबर सबको हो जाती है, बस उसी को नहीं होती, जिसे होनी चाहिए । इस पर कवयित्री का अटूट विश्वास है -
मुख़्तसर सी बात है, इश्क़ बयां नहीं होता /
हाल-ए-दिल तो तुम पर बयां कर जाएंगे /( पृ - 72 )
प्रेम का मजा रूठने-मनाने में है, इसलिए वह रूठना भी चाहती है - 
काश ! हम भी कभी रूठा करते /
और तुमने मिन्नतों से मनाया होता /( पृ. - 113 )
वह साथी से प्रश्न पूछती है कि क्या तुम मुझे समझना चाहते हो ? वह इस प्रश्न का कोई उत्तर तो नहीं सुझाती कि कैसे उसे समझा जाए लेकिन इतना विश्वास जरूर दिलाती है - 
करो कोशिश / ज़रूर जान पाओगे एक दिन /
क्यों हूँ मैं / वो / जो मैं हूँ / ( पृ. - 77 )
प्रिय को वो पाती में हाथों की हल्दी, होंठों की लाली, काजल के बादल, आँखों की धनक, प्रेम की कनक भेजते हुए कहती है -
बस यूँ समझ लो भेजा है /
मन के गागर में सागर / ( पृ. - 114 )
लेकिन वह इस पाती का उत्तर पाती के रूप में नहीं चाहती, बल्कि उसकी चाहत है -
आ जाओ वापस / बनकर मेरी पाती का जवाब /( पृ. - 115 ) 
                    प्यार के साथ जुदाई तो सदा से रही है लेकिन जुदाई प्यार को कम नहीं कर सकती । प्रिय के जाने के बाद भी उससे बन्धन का एहसास जिन्दा रहता है । उसे विश्वास है कि उसके प्रेम का अवसान नहीं होगा । आकाश और धरती को उदाहरण के रूप में लेकर वह लिखती है - 
कहा नहीं कभी शब्दों में / पर शायद ऐसे ही /
पलता है प्रेम / धरती और आकाश के बीच /
क्षितिज के पार / ( पृ. - 23 )
प्रिय के बिना तन्हाई के पलों के बारे में वह लिखती है - 
पलकों तले तुम्हारी बाहें / उसमें नीमबेहोशी सा प्यार /
रात को तारों में बाँटती / मैं और मेरी तन्हाई /( पृ. - 70 )
अकेलेपन में वह बादलों में किसी का अक्स ढूँढती है । हर जगह, हर सिम्त उसे प्रियतम नज़र आता है । उसे लगता है - 
हमारे प्यार से ही / रौशन ये दुनिया / 
कोई भी गम, इस ख़ुशी से / बड़ा नहीं लगता /( पृ. - 106 )
साक्षात रूप में न सही उसे प्रियतम स्वप्न में भी मंजूर है - 
सपना बनके ही सही / आँखों में रहो /
कागज़ की कश्ती बनकर / पार लगाओ मेरी साँसे.../ ( पृ. - 93 )
           कभी-कभी उसे अपनी परेशानी समझ नहीं आती और यह स्थिति उसे कशमकश में डालती है - 
क्या करता है / परेशान मुझे /तेरा सामने होकर भी / 
न होने का एहसास /या तेरा सामने न होकर भी / 
हर वक्त  ख़्यालों में होना ? ( पृ. - 35 )
            जुदाई है तो यादें हैं । यादें कभी हँसाती हैं, तो कभी रुलाती हैं । कवयित्री कहती है - 
महकती हैं यादें / रात की रानी की तरह / बिखेरती है खुशबू / 
रजनीगन्धा की तरह /बिछ जाती हैं तुम्हारे इंतज़ार में /हरसिंगार की तरह / ( पृ. - 73 )
ये यादें ही हैं जो प्रेम की बारिश के बिना भी मन को रेगिस्तान में बदलने नहीं देती, लेकिन याद कभी-कभी पीड़ा भी पहुँचाती हैं, ऐसी दशा में वह लिखती है -
तेरी यादों से / चाहिए मुक्ति / 
अब सीली हवा / नहीं भाती मुझे /
चुभते हैं / तेरी यादों के मोती / ( पृ. - 18 )
यादें तब उसे पछताने को विवश करती हैं, जब सुर्ख स्याही से लिखा पुराना खत डायरी से गिर जाता है, तब वह खुद से कहती है कि क्यों इसे डाकिये के सुपुर्द नहीं किया, क्यों जख्मों को नासूर बनने दिया । वह लिखती है -
एक अदद लिफ़ाफ़े की थी जरूरत  / जो मिल जाता /
तो हो जाती ये भी / सुपुर्द डाकिए के /
पहुँच जाती अपनी मंजिल तक / ( पृ. - 46 )
            शीर्षक कविता तेरे ख़्यालों की धूप में ख्याल धूप के खूबसूरत रूपक में बंधे हैं -
आज कितने पास थे तुम / हथेली पर सूरज के टुकड़े की तरह /
जिसे देख सकती थी / छू सकती थी /कर सकती थी महसूस / 
तुम्हारी गर्माहट को /लेकिन मुट्ठी बन्द कर / 
तुम्हें रख नहीं सकती / ( पृ . - 60 ) 
कवयित्री ख्याल बुनती है, यादों में जीती है, लेकिन सच से भी परिचित है - 
सपना था शायद / सपना ही होगा / वरना कब मिलते हैं / 
बिछुड़े लोग, जैसे शाखों से टूटे पत्ते /( पृ. - 61 )
                       प्रेम से इतर भी कवयित्री की कलम कई विषयों पर चली है । पुरुष-स्त्री को वह जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए मानते हुए, स्त्री को महत्त्वपूर्ण मानती है - 
कभी प्रकृति हूँ, करती हूँ सृजन /  
कभी बन के नायिका इठलाती /
हूँ कन्या-धन, जो मात-पिता का /
द्वार छोड़ संग आ जाती / ( पृ. - 62 )
बेटी के महत्त्व को दर्शाती हुई वह लिखती है -
जूही की डाली सी / जीवन को महकाती /
बेटियाँ होती हैं / अनन्य / ( पृ. - 94 )
                      वह अपनों द्वारा किये जाने वाले यौन उत्पीड़न के विषय को उठाती हुई, अपनों से मिले धोखे को बिटर चॉकलेट की संज्ञा देती है और अपनों के अपनेपन पर सवालिया निशाँ लगाती हुई गुहार भी लगाती है - 
नहीं, नहीं / मत कुचलो मेरे मन को /
मत तोड़ो मेरे तन को / मेरे अपने ? ( पृ. - 51 )
वह वहशी से सवाल करती है - 
क्या मिला सकोगे कभी / आँखों से आँखें /
कह सकोगे सच / अपनी आत्मा से ? ( पृ. - 97 )
                  यथार्थ और स्वप्न के अंतर से दुखी होने के कारण उसे एक जादुई छड़ी की आकांक्षा है, लेकिन साथ ही उसे विश्वास है कि दुआओं के लिए उठे हाथ लकीरों के मोहताज नहीं होते । उसे हाथ की लकीरों पर विश्वास नहीं, वह अपने हाथों से अपना भाग्य लिखना चाहती है, इसलिए कलम की मांग करती है । ज़िन्दगी उसे अपनी हमसफ़र लगती है जो कुछ यादें संजोए उसके साथ कदम-दर-कदम चल रही है, वह उसे माँ की भाँति मुस्कराती हुई भी लगती है । वह बादलों को संबोधित करते हुए उनसे शिकवा करती है, उन्हें माफ़ भी करती है और उनके बरसने का इन्तजार करती है । उसे अपना गुनगुनाता फकीर मन मिलना सकून देता है, भले ही यह उधार मिला है । वह सखी के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहती है - 
क्योंकि बनाए गए है / हम शायद एक ही मिट्टी से / 
क्या पूछोगी अब भी / सखी ! / 
कैसे समझ लेती हूँ मैं / तुम्हारी हर बात को / ( पृ. - 16 )
वह खुद को मंजिल के रूपक में बाँधती है - 
ख़ुश हूँ मैं बियाबां में भी / भटके राही को छाँव देती हूँ /
हूँ मैं बेनाम सी मंजिल, मुझे / 
किसी और का इन्तजार नहीं / ( पृ. - 50 )
                   आशा, निराशा, विद्रोह भी इन कविताओं में झलकता है । वह आशावादी होकर कहती है -
सफर का अंत / ज़िन्दगी का अंत नहीं होता /
रुकेगी वहीं ज़िन्दगी / जहाँ रुकूँगी मैं / ( पृ. - 64 )
लेकिन निराशा भी आशा के साथ चलती है - 
जिए जाते हैं गमे-ज़िन्दगी दिल में दबाए /
इस दर्द से मुक्ति मिलेगी क्या पता कब / ( पृ. - 107 )
                     कवयित्री की कविताओं में दार्शनिकता के भी दर्शन होते हैं । शब्द उसे कागज के फूल लगते हैं, जिसमें खुशबू नहीं । जगत का उद्गम वह नाद में देखती है । प्रकृति के कण-कण पर उसे कहानियाँ लिखी मिलती हैं ।गोलकोंडा के खण्डहर देखकर वह नश्वरता का सन्देश देती है - 
क्योंकि सच यही है / हम सब समय के मेहमान हैं /
उसकी सराय में / रात के बाशिंदे / ( पृ. - 55 )
आदमी क्या है या मैं कौन हूँ के दार्शनिक सवाल को कवयित्री उठाते हुए इन्तजार करती है -
तो कोई कहे, अरे ! किसे ढूँढ रही है तू 
तू तो मेरे पास है / चल मेरे साथ चल /
मैं तुझे तेरा पता बता दूँ / ( पृ. - 81 )
        कविता क्या है ? इस पर कवयित्री का नजरिया देखिए - 
संसार के केंद्र में / दर्शन के मीमांसा में / 
मानव के हृदय में / कोमल भावनाओं की कोंपल का /
बचे रहना ही है कविता / ( पृ. - 118 )
उसे लगता है कवि के ख्याल जब कविता के रूप में बदलते हैं तो वह उसकी प्रेमिका की शक्ल जैसे होते हैं । 
               कवि कविता को अपने आस-पड़ोस से रचता है, यह बात इस संग्रह की कविताओं में देखी जा सकती है । औरत का सम्पर्क रसोई से तो रहता ही है और फिर वही बिम्ब रूप में कविता में भी सहज ही आ जाता है -
पकाई जाती है / खट्टी-मीठी यादें /और सहेज ली जाती हैं / 
आँखों के मर्तबान में /होंठों की सौंधी कुल्हड़ से /
ली जाती है मसाले वाली चाय की / गर्म चुस्की.../( पृ. - 111 )
                    कवयित्री की इस बिम्बात्मक शैली के दर्शन अन्यत्र भी मिलते हैं - 
मिट्टी से सने हाथों में / गिल्ली लिए हुए /लट्टू नचाते हुए / 
कंचे संभालते हुए /फटे हुए पतंग के साथ / 
दोस्तों के साथ / मस्त मलंग / ( पृ. - 19 )
                  कविताएँ मुक्त छंद में ही हैं, भले ही कवयित्री ने तुकांत को भी अपनाया है । कविता का सहज प्रवाह और भाषा की सरसता बाँधे रखने में सफल रहती है । पहला संग्रह यह आस बँधाता है कि कवयित्री साहित्याकाश पर सूरज बनकर अपनी धूप निरन्तर बिखेरती रहेगी ।
दिलबागसिंह विर्क
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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2016) को "धरती पर हरियाली छाई" (चर्चा अंक-2405) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर रचनाएँ और सटीक समीक्षा

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