BE PROUD TO BE AN INDIAN

शनिवार, जून 22, 2013

रास और रासो

आदिकालीन साहित्य में रास और रासो साहित्य का विशेष स्थान है । रास साहित्य जैन परम्परा से संबंधित है तो रासो का संबंध अधिकांशत: वीर काव्य से जो डिंगल भाषा में लिखा गया । रास और रासो शब्द की व्युत्पति संबंधी विद्वानों में मतभेद है । कुछ मत निम्न हैं -

1. रास        - नन्द दुलारे वाजपेयी । 
2. रासक     - चन्द्रवली पाण्डेय ,
                  - डॉ. दशरथ शर्मा ,          
                  - पंडित विश्वनाथ मिश्र , 
                  - डॉ. माताप्रसाद गुप्त,
                  - हजारीप्रसाद द्विवेदी । 
3. रसिक     - नरोत्तम स्वामी 
4. राजसूय  - गार्सा-दी-तासी 
5. राजयश  -  डॉ. हरप्रसाद शास्त्री 
6. रसायण  - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल 
7. रहस्य    -  कविराज श्यामल दास 
                 - डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल  

इन सभी मतों में ज्यादतर मान्यता रासक शब्द की है । रासक से रास शब्द अपभ्रंश के नियमानुसार बना माना जाता है और रास से रासो शब्द राजस्थानी भाषा के नियमानुसार । 

अपभ्रंश के नियमानुसार - 
          रासक  - रासअ / रासउ - रास 
राजस्थानी के नियमानुसार - 
          रास - रासा - रासु - रासो 
इस प्रकार रासक ( नृत्य विशेष, छंद विशेष, काव्य विशेष ) को ही आदि शब्द माना जाता है , रासो इसी का परिवर्तित एवं विकसित रूप है । 

संस्कृत साहित्य में ' रासक ' संज्ञा का प्रयोग प्राय: एक ही समय तीन अर्थों में होता रहा है - 
  1. गेय काव्यों के लिए 
  2. नृत्य विशेष के लिए 
  3. रूपक के विशेष भेद के लिए 
प्रारंभ में रासक गीतों का प्रयोग नृत्य एवं अभिनय के साथ होता रहा होगा और आगे चलकर नृत्य एवं अभिनय तत्व लुप्त हो गए होंगे ( जैसे अब नाटक में अभिनय तत्व होना आवश्यक नहीं )  तथा केवल काव्य रूप का विकास अधिक हो गया होगा । जैसे - संघपति रामरास (  पढने, गुनने और नाचने का उल्लेख )  

माताप्रसाद गुप्त ने रासो काव्य की दो परम्पराएं मानी हैं - 
1. गीत - नृत्यपरक - अपभ्रंश बहुल भाषा  
             ( 12 वीं से 14 वीं शताब्दी में जैन कवियों द्वारा ) 
                ( पश्चिमी राजस्थान और गुजरात में लिखी गई रचनाएं ) 

2. छंद वैविध्यपरक रचनाएं - 
              ( 14 वीं से 20 वीं शती का जैनोतर काव्य ) 
             हिंदी प्रदेश की रचनाएं, दृष्टिकोण काव्यपरक 

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त इन दोनों परम्पराओं को पूर्व पक्ष और उत्तर पक्ष मानते हैं । बीसलदेव रासो इनके बीच की कड़ी के समान है । 

                                 **********
( मेरे नोट्स पर आधारित, सुझाव आमंत्रित ) 

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

साहित्यिक इतिहास के गौरवशाली अध्याय की झलक।

Madabhushi Rangraj Iyengar ने कहा…



बहुत ही अच्छी जानकारी.

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...