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रविवार, दिसंबर 11, 2011

परिवार के दुखों की कथा कहता उपन्यास - शुभदा


नशेडी, जुआरी और वेश्यागमन करने वाले व्यक्ति के परिवार के दुखों की कहानी है शरतचंद्र का उपन्यास शुभदा. शुभदा इस उपन्यास की केंद्र बिंदु है. उसका पति हारान बीस रूपये माह पर नौकरी करता है. इतनी आमदनी काफी है, लेकिन वह नशा करता है और कात्यायनी नामक वेश्या पर पैसे लुटाता है. पैसे के लिए गबन करता है, परिणामस्वरूप नौकरी चली जाती है. बाद में वह जुआ खेलता है, भिक्षा मांगता है.

                 शुभदा के दो बेटे और दो बेटियां हैं. एक बेटे की मृत्यु के समाचार से ही यह उपन्यास शुरू होता है. दूसरा बेटा भी रोगग्रस्त है, जो पहले दवा-दारू न होने के कारण ज्यादा कमजोर हो जाता है, बाद में उसकी भी मृत्यु हो जाती है. ललना और छलना नामक दो बेटियों में ललना बाल विधवा है, लेकिन वह शारदाचरण से प्यार करती है. एक बार ललना अपने पाँव पीछे हटा कर शारदा से सम्बन्ध तोड़ लेती है, लेकिन जब वह देखती है कि छलना की उम्र शादी लायक हो गई है तो वह रात को शारदा को बुलाती है. वह पहले खुद की शादी का प्रस्ताव रखती है, जिसे शारदा यह कहकर ठुकरा देता है कि इससे उनकी जाति भंग हो जाएगी. फिर वह छलना की शादी का प्रस्ताव रखती है, लेकिन शारदा का मानना है कि पिताजी दहेज़ मांगेंगे.वह कोशिश करने की बात तो कहता है, लेकिन कोई आश्वासन वह नहीं देता. 
                    मुश्किल की खड़ी में विन्दो, सदा और कृष्णा उनके परिवार की मदद करते हैं, लेकिन फिर भी कई बार बिना भोजन किये रहना पड़ता है. ललना सुंदर है और वह सौन्दर्य से पैसे कमाने के लिए कोलकाता की तरफ चल देती है. घर वालों को घाट पर उसकी साड़ी मिलती है. अत: वह समझते हैं कि ललना ने आत्महत्या कर ली. ललना को नारायणपुर के जमींदार सुरेन्द्र बाबु की नौका मिल जाती है. सुरेन्द्र बाबु एक वेश्या जयावती के साथ भ्रमण पर हैं. ललना अपना नाम मालती बताती है और कहती है उसका कोई नहीं है और वह नौकरी की तलाश में कलकत्ता जा रही है. सुरेन्द्र बाबु उसका मकसद ताड़ जाते हैं और अपने पास रहने का निमन्त्रण देते हैं. जयावती की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है और मालती उसका स्थान ले लेती है. सुरेन्द्र बाबु उस पर मोहित हैं. वह शादी करना चाहते है, लेकिन मालती रखैल बनकर ही रहना चाहती है क्योंकि उसे डर है कि समाज सुरेन्द्र बाबु का बहिष्कार कर देगा. सुरेन्द्र बाबु मालती की कहानी जान जाता है और वह उसे पचास रूपये हर माह परिवार को भेजने की बात कहता है.
                   उधर सदा जो बुआ को लेकर काशी गया हुआ था, बुआ के देहावसान के बाद वापिस लौट आता है. ललना की मृत्यु का समाचार सुन कर वह अपना सारा सामान लेकर शुभदा के घर रहने लगता है. घर का सारा खर्च वह उठाता है. एक हजार नगद, आभूषण और अन्य सामान देकर छलना की शादी शारदा से करवा देता है, लेकिन वह शुभदा के दूसरे बेटे को नहीं बचा पाता. ललना द्वारा भेजे पचास रूपये शारदा को मिलते हैं. वह इन पैसो को वापिस लौटाने के लिए सदा को कोलकाता भेजती है. यहाँ सदा की मुलाकात सुरेन्द्र बाबु से होती है. सुरेन्द्र ललना के परिवार का हाल-चाल जान लेता है, साथ ही बताता है कि ललना जिन्दा है. सदा ललना को आशीर्वाद देते हुए और यह कहते हुए कि ललना का मरा होना ही उचित है, वापिस लौट जाता है. शुभदा को वह कहता है कि पैसे भेजने वाले का पता नहीं चला. शुभदा इन दिनों बीमार रहती है. रात को कोई चोर आता है, शुभदा उसे पचास रूपये ले जाने को कहती है और वह ये पैसे लेकर चला जाता है. 
                 यह उपन्यास एक परिवार के दुखों की कहानी है, लेकिन कुछ घटनाएं वास्तविक-सी नहीं जान पड़ती. यथा विन्दो के पिता और हारान बाबु की दुश्मनी है, लेकिन विन्दो शुभदा को अपने सोने के कड़े उतार कर दे देती है जो तीन-चार सौ के हैं, साथ में पाँच रूपये भी देती है. यह कड़े वह हारण बाबु को छुडवाने के लिए देती है जो गबन के कारण जेल में है. विन्दो इतनी दानी क्यों बनी, इसका कोई उत्तर नहीं दिया गया. जब यह कड़े हारण बाबु का मालिक लेने से इनकार कर देता है तो इन कड़ों को न वापिस किया जाता है और न इनसे घर का खर्च चलाया जाता है. विन्दो इसके बाद उपन्यास से लुप्त हो जाती है. सदा को पागल कहा जाता है. वह खुद भी खुद को पागल कहता है, लेकिन कोई पागलपन वह नहीं दिखाता. वह बिना कारण शुभदा के परिवार की मदद करता है. सुरेन्द्र बाबु कहता है कि सदा को ललना से प्यार था लेकिन वह तो ललना की मृत्यु के बाद भी मदद करता है और पहले तो मदद कभी कभार करता था लेकिन बाद में वह उस परिवार का खर्च खुद ही उठाता है.  लेखक के अनुसार उसकी जाति उच्च नहीं थी, इसलिए उसे पैसे देकर शादी करवानी पड़ी थी. पत्नी की मृत्यु के बाद दोबारा शादी करवाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे ,लेकिन वही सदा छलना की शादी पर दिल खोलकर खर्च करता है. कृष्णा को लडाकी औरत के रूप में दिखाया गया है, लेकिन वह भी बिना मांगे शुभदा की मदद करती है. शुभदा हर किसी से हर प्रकार की सहायता ले रही है. हारान द्वारा भीख में मांगकर लाए चावल वह खा लेती है, लेकिन डाकिए द्वारा दिए गए पचास रूपयों को वह स्वीकार नहीं करती. वह कहती है कि वह रूपए वह कैसे स्वीकार कर सकती है जो उसके नहीं हैं. वेश्या कात्यायनी की एक झलक दिखती है जो विरोधाभासी है. हारान उससे अपने प्रेम के नाते दो रूपए मांगता है , जिस पर वह कहती है कैसा प्यार ? उसका प्यार पैसों से है, लेकिन बाद में वही हारान को दस रूपए देती है और साथ ही उपदेश भी देती है कि घर, बीवी-बच्चे पहले होते हैं, वेश्या बाद में. अत: वह बच्चों का पालन-पोषण करे.
                इस उपन्यास में वेश्यों पर घर लुटाने की प्रवृति दिखाई गई है. हारान की दुर्दशा का कारण उसका वेश्या के पास जाना ही है. सुरेन्द्र बाबु रखैल रखते हैं. पहले यह स्थान जयावती को प्राप्त है, बाद में मालती ( ललना ) यह स्थान ले लेती है. प्रेम का चित्रण अस्पष्ट है. शारदा ललना में प्रेम है, लेकिन पहले ललना पीछे हट जाती है और फिर शारदा शादी से इनकार कर देता है. सुरेन्द्र बाबु के अनुसार सदा को ललना से प्यार था. ललना के जीवित होने की खबर से उसका सुध-बुध खो देना इस बात को सत्य ठहरता प्रतीत होता है, लेकिन उपन्यास में मदद करने को आतुर बहुत से लोग हैं, ऐसे में सदा की मदद को प्यार समझना मुश्किल लगता है. सुरेन्द्र बाबु ललना पर मोहित है, लेकिन ललना कहती है भले ही उसके शरीर को किसी ने नहीं छुआ लेकिन वह शारदा से प्रेम करती थी, इसलिए वह वेश्या ही है.
             शुभदा को इस उपन्यास की नायिका दिखाया गया है. वह पति को भोजन खिलाए बिना भोजन नहीं करती, इसलिए उसे कई बार भूखा ही सोना पड़ता है. अंत में लेखक उसे स्वाभिमानी औरत के रूप में प्रस्तुत करता है, जो मजबूरी के समय भले ही किसी की मदद लेती हो, लेकिन मजबूरी न रहने पर किसी भी धन को स्वीकार नहीं करती. उपन्यास के अंत में उसकी मृत्यु तो नहीं होती, लेकिन इतना इशारा जरूर हो जाता है कि उसका अंत नजदीक है. संक्षेप में यह उपन्यास उसी के दुःख की कथा है.


                   * * * * * 

8 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) ने कहा…

यह उपन्यास नहीं पढ़ा था.उपन्यास का कथासार सुना कर आपने तृप्त किया. अच्छी समीक्षा की है. दिलबाग जी, मेरे विचार में कोई भी कथा उस वक़्त की सामाजिक व्यवस्थाओं और प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप लिखी जाती है.वर्तमान में उसका प्रासंगिक होना जरुरी नहीं होता.कृपया इसे अन्यथा न लें. धन्यवाद.

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 12-12-2011 को सोमवारीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

ऋता शेखर 'मधु' ने कहा…

शरतचंद्र के उपन्यास पढ़े हैं,ये नहीं पढ़ी थी|आभार.

Jeevan Pushp ने कहा…

मैं ये उपन्यास पटना के पुस्तक मेला से खरीद कर पढ़ा था !
आज इस पर समीक्षा पढ़ कर बहुत अच्छा लगा !
आभार आपका !

Pallavi saxena ने कहा…

maine yh upnyaas padha hai kintu yahan samaiksha roop men dubara padhvaane ke liye abhaar samay mile kabhi to aaiyegaa meri post par aapka svagat hai http://mhare-anubhav.blogspot.com/

Urmi ने कहा…

बहुत बढ़िया लगा! सुन्दर प्रस्तुती!

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज भी शरद बाबू की लेखनी प्रासंगिक है।

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