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बुधवार, दिसंबर 23, 2015

हरियाणा की महिला रचनाकारों का समग्र मूल्यांकन करती कृति


पुस्तक - हरियाणा की महिला रचनाकार : विविध आयाम 
लेखिका - डॉ. शील कौशिक 
प्रकाशन - हरियाणा ग्रन्थ अकादमी,पंचकूला 
पृष्ठ - 388 ( सजिल्द )
कीमत - 260 
विधा कोई भी हो साहित्य सृजन साधना की मांग करता है और जब बात आलोचना की हो तो यह कार्य दूसरी विधाओं से अधिक श्रमसाध्य और दायित्वपूर्ण हो जाता है | आलोचक की आलोचना करते हुए कहा गया है कि आलोचक वह व्यक्ति है, जो लेखक के कंधे पर बैठकर कहता है कि तू बौना है | ( संभवत: यह उक्ति मुंशी प्रेमचन्द की है ) यह कटूक्ति बताती है कि आलोचना कार्य तलवार की धार पर चलने जैसा है, लेकिन तमाम खतरों को उठाते हुए यह कार्य किया जाना बेहद जरूरी है | साहित्य के क्षेत्र में भी अनेक विद्वान और विदुषियाँ इस कार्य को मनोयोग से कर रही हैं | इन्हीं विदुषियों में एक नाम है, डॉ. शील कौशिक जी का, जिन्होंने “ हरियाणा की महिला रचनाकार : विविध आयाम ” पुस्तक के रूप में एक श्रमसाध्य कार्य किया है | इस आलोचना ग्रन्थ में हरियाणा की 72 महिला रचनाकारों को लिया गया है | हरियाणा की रचनाकार होने का आधार हरियाणा में जन्म, हरियाणा सरकार में कार्यरत, सेवानिवृत या पेंशन-भोगी होना या जिनका पिछले 15 वर्षों से स्थायी निवास हरियाणा है, रखा गया है | हरियाणा की ये महिला साहित्यकार साहित्य की सभी विधाओं में लिख रही हैं | इस ग्रन्थ में साहित्यकारों को जन्म के आधार पर क्रम में रखा गया है | पहली महिला साहित्यकार इंद्रा स्वप्न का जन्म 1913 को हुआ है जबकि आख़िरी साहित्यकार चित्रा शर्मा का जन्म 1982 को हुआ | इस प्रकार यह 1913 से 1982 के बीच पैदा हुई महिला रचनाकारों की रचना यात्रा का शोधपूर्ण दस्तावेज है |
किसी व्यक्ति पर विस्तारपूर्वक लिखना ज्यादा आसान होता है, जबकि कम शब्दों में अधिक कहना बेहद कठिन होता है और जब किसी साहित्यकार के सम्पूर्ण कृतित्व पर लिखना हो तो यह कार्य और कठिन हो जाता है | हरियाणा की समस्त महिला रचनाकारों पर एक पुस्तक लिखते समय विस्तारपूर्वक लिखने की छूट नहीं थी | कई साहित्यकारों का कृतित्व तो अकेले में पुस्तक की मांग करता है, ऐसे में सभी पर औसतन पांच-छह पृष्ठ के लेखन का कार्य गागर में सागर भरने जैसा था, जिसमें डॉ. शील कौशिक पूरी तरह से सफल रही हैं | अध्यायों के नामकरण इसका प्रमाण हैं, कुछ उदाहरण – अंधेरों में दीपक जलाती कहानीकार, विविधमुखी साहित्य सेविका, उदात्त भावनाओं की  कवयित्री, मनोवैज्ञानिक लेखनकर्त्री, नारी संवेदना की लेखिका, सूर सम्मान प्राप्त एकमात्र महिला साहित्यकार, सतत साहित्य साधिका, लीक से परे की रचनाकार, समाज की नब्ज टटोलने वाली गज़लकार आदि नाम ही संबंधित रचनाकार के बारे में काफी कुछ कह देते हैं | जो कलम शीर्षक के माध्यम से ही इतना कुछ कहने में समर्थ हो, वो पाँच- छह पृष्ठ में रचनाकार के व्यक्तित्व को उभारने में पर्याप्त सक्षम होगी ही | हालांकि स्वकथ्य में लेखिका कहती हैं –
कुछ लेखिकाओं द्वारा अधिकाधिक सामग्री उपलब्ध कराई गई, अत: उनकी सभी कृतियों की व्याख्या संभव नहीं हो पाई, केवल उनकी जिन कृतियों ने ज्यादा प्रभावित किया, उसी का मूल्यांकन किया गया | दूसरी तरफ कुछ लेखिकाएं अपनी कृतियाँ उपलब्ध नहीं करा सकीं, उनके द्वारा भेजी गई समीक्षकों की समीक्षाओं के आधार पर ही लिखा गया, इसलिए हो सकता है यह उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का आंशिक चित्रण ही हो | फिर भी किसी कारणवश यदि कोई उल्लेखनीय रचयिता या रचना इस पुस्तक में उल्लिखत होने से रह गई हो या विचारों का मत वैभिन्य हो, तो इसके लिए संवर्द्धन व संशोधन संबंधी प्रस्तावों का भविष्य में स्वागत करूंगी ताकि यह पुस्तक विधिवत प्रामाणिक इतिहास बन सके |” 
उनका यह स्वकथ्य बताता है कि लेखिका का प्रयास कितना ईमानदारीपूर्वक किया गया कृत्य है और उनका लक्ष्य खुद के अहं की बजाए प्रामाणिकता है | 
इस आलोचना ग्रन्थ में सभी साहित्यकारों के जीवन परिचय पर प्रकाश डाला गया है, कृतित्व पर विचार किया गया है | प्रकाशित कृतियों की सिर्फ संख्या न देकर लगभग सबके नाम दिए गए हैं | अंत में रचनाकारों का पता और मोबाइल नम्बर दिया गया है, जिससे यह पुस्तक सन्दर्भ ग्रन्थ बन पड़ी है | सभी रचनाकारों की सम्पूर्ण कृतियों का नाम होने से यह साहित्य के विद्यार्थियों के लिए विशेष उपयोगी ग्रन्थ है | 
                   यहाँ तक डॉ. शील कौशिक की समालोचना का प्रश्न है, तो यह पुस्तक उनकी बहुमुखी प्रतिभा के एक और पहलू को उजागर करती है | उन्होंने सभी रचनाकारों की उपलब्ध सामग्री का बड़ी बारीकी से विश्लेषण किया है और इसे निष्पक्षता से ब्यान किया है | सभी रचनाकारों के जीवन को संक्षेप में बताया है, जिससे उनके साहित्य को समझने में सुविधा रही है | आप क्यों लिखती हैं, लेखन की प्रेरणा व लेखन प्रक्रिया, लेखन कैसा हो, लेखन की शुरुआत कब और कैसे हुई जैसे प्रश्न वे पूछती हैं और इनके उत्तर पाठक को लेखक और लेखन प्रक्रिया को समझने में मदद करते हैं, यथा कमलेश चौधरी कहती हैं कि “ पढ़ने की आदत ने उन्हें फंतासियों की दुनिया में धकेल दिया( पृ. – 197 ) | यह लेखन में कैसे उतरा जाए को बड़े सुंदर ढंग से बताता है तो कमल कपूर का कहना “ किताबें मेरे लिए ईश्वर हैं, पढ़ना पूजा और लिखना साधना |( पृ. – 182 ) लेखक के मुकाम तक पहुँचने के पीछे की सोच को दर्शाता है | 
रचनाकार के व्यक्तित्व के बारे में टिप्पणी देना आलोचक का प्रथम धर्म है, क्योंकि रचनाएं रचनाकार से जुड़ी होती हैं | डॉ. शील कौशिक इस  आलोचना ग्रन्थ में अपने धर्म का निर्वाह करती हैं | उनका मानना है कि “ कृतित्व ही व्यक्तित्व का आइना है ।  ” 
( पृ. - 158 )  
इस आधार पर वह रचनाकार और उसकी रचनाओं को एक साथ देखने का प्रयास करती हैं | 
अंजु दुआ का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं में झलकता है ( पृ. – 356 )
अंजु दुआ जैमिनी के बारे में यह वक्तव्य इसी दृष्टिकोण का द्योतक है | रचनाकारों के आधार पर ही उन्होंने रचनाकारों के बारे में निर्णय लिए हैं – 
सुश्री कुमुद बंसल चिंतनशील प्रवृति की महिला हैं । ” ( पृ. – 213 ) 
या 
चुनौतियों को स्वीकार करना शमीम का शगल है ।  ” ( पृ. – 248 )
लेखन में झलकते गुणों के साथ जोड़कर ही उन्होंने रचनाकारों का जीवन परिचय दिया है, 
चुनौतियों को स्वीकार करने वाली, शिक्षा, समाज सेवा तथा लेखन को समर्पित डॉ. शमीम शर्मा का जन्म 17 मार्च 1959 में सिरसा में हुआ ।  ( पृ. – 243 ) 
इसके विपरीत जीवन परिचय देते हुए उन्होंने रचनाकार के गुणों का बखान किया है – 
1 जनवरी सन 1961 में जन्मी शांत, सौम्य एवं आकर्षक दिखने वाली आशमा कौल एक अत्यंत संवेदनशील कवयित्री हैं | वो अंतर्मुखी व शब्दों को मितव्ययता से बरतने वाली हैं  ।  ” ( पृ. – 268 ) 
रचनाकार की अदम्य जिजीविषा को भी उन्होंने व्यक्त किया है – 
उम्र की ढलान पर जब इंसान अपने स्वास्थ्य के सरोकार से ही चिंतित रहता है और समय का सदुपयोग नहीं कर पाता, ऐसे में उनके सतत लेखन को अदम्य जिजीविषा से लबरेज ही कहा जाएगा | ” (शंकुतला ब्रजमोहन, पृ.– 18 ) 
और रचनाकार साहित्य के बारे में क्या सोचता है वह भी बताया है – 
डॉ. ऊषा अग्रवाल साहित्य को समाज का दर्पण ही नहीं वरन शोधक भी मानती हैं | ” 
( पृ.- 58 )
साहित्यकार जो सोचता है, जो करता है, उसका प्रभाव साहित्य पर पड़ता ही है | साहित्यकार के व्यक्तित्व के साहित्य पर प्रभाव को बड़ी खूबसूरती से ब्यान किया गया है  -
सुलेखिका के पांडित्य एवं विद्वता की छाया इनके लेखन में सर्वत्र दृष्टिगोचर हुई है |” 
( राजकरनी अरोड़ा, पृ.- 66 )
डॉ. मंजु दलाल पर लिखते हुए भी इसी सुमेल का वर्णन किया गया है – 
इस प्रकार अपने सीधे, सरल स्वभाव के अनुकूल गद्य और पद्य में लेखन करने वाली डॉ. मंजु विषम परिस्थितियों को भी अपनी दार्शनिकता में पिरोकर उदात्त बना देती हैं | उनमें बौद्धिकता व सौंदर्यानुभूति प्रतिभा कूट-कूट कर भरी है | ” ( पृ.- 366 )
लेखन के इतर परिस्तिथियाँ भी रचनाकार को कैसे प्रभावित करती हैं, इसको भी उन्होंने ब्यान किया है – 
स्वभाव से शालीन चन्द्रकांता अपने लेखन में कहीं लाउड नहीं हैं, लेकिन आज जो कुछ काश्मीर में हो रहा है और जिस तरह धार्मिक-साम्प्रदायिक उन्माद देश की धर्मनिरपेक्षता पर कुठाराघात कर रहा है, उससे वो विचलित जरूर हुई हैं | ” ( पृ.- 83 )
रचनाकार का व्यक्तित्व ही रचनाकार को किसी वाद से जोड़ता है | कृष्ण लता यादव के बारे में उनकी यह उक्ति यही कहती है – 
लेखिका सद्वृतियों की पक्षधर हैं तथा इनके लेखन में जीवन आदर्शों की अनुगूंज है, तभी तो इन्हें आदर्शोन्मुखी यथार्थ की रचनाकार कहा गया है | ” ( पृ.- 208 )
           कोई रचनाकार किस वाद से जुड़ा हुआ है या किस विचारधार का प्रभाव उस पर पड़ा है,  इसका निर्धारण आलोचना के क्षेत्र में आता है और यह समालोचक का ही कार्य है कि वह रचनाकार के वाद को निर्धारित करे | डॉ. शील कौशिक ने इस आलोचना ग्रन्थ में विभिन्न रचनाकारों को इस दृष्टि से भी देखा है | इंद्रा स्वप्न के बारे में वे लिखती हैं – 
इनकी प्रारम्भिक रचनाओं में नारी स्वातन्त्र्य, पारिवारिक वर्जनाओं व अधिकारों के लिए संघर्ष, देश प्रेम व बलिदान की भावना प्रमुखता से मुखर हुई है | चेतना के स्तर पर इंद्रा स्वप्न के साहित्य को प्रेमचन्द युगीन साहित्य में रखा जा सकता है, क्योंकि प्रेमचन्द की भांति इनके साहित्य में राष्ट्र प्रेम तथा रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की भावना है तथा इनकी रचनाओं में यथार्थ आदर्शवाद है | (पृ.- 13 )
डॉ. सुधा जैन के बारे में लिखा गया है – 
उन दिनों कविता का स्वर प्रगतिवादी चेतना का था, इसी से उनकी कविता भी प्रभावित रही |( पृ.- 30 )
कुछ रचनाकार वाद के बिना भी अपनी रौ में लिखते हैं, उनको पहचानने का कार्य भी आलोचक के हिस्से आता है | डॉ. शील कौशिक ने इसे बखूबी पहचाना है – 
तथाकथित स्त्री-विमर्श के वाद-विवाद में पड़े बिना कवयित्री सहज भाव से स्त्रीमन के आक्रोश और गुंजलकों को परत-दर-परत खोलते चलती है और सीधे-सीधे व्यक्त करती है |( धीरा खंडेलवाल, पृ.- 302 )
इसी प्रकार वो कमला चमोला के बारे में लिखती हैं – 
कमला जी ने विशेष धारा या वाद या साहित्य में हो रहे प्रयोगों से कभी अपने को नहीं जोड़ा | ( पृ.- 148 )
रचनाकार साहित्य में उतरकर साहित्य विधाओं पर किस प्रकार की पकड़ रखता है, इसकी जांच भी आलोचना के अंतर्गत करनी होती है | ऐसे में आलोचक विभिन्न विधाओं के मापदंड तय करते हैं | डॉ. शील कौशिक लघुकथा के बारे में अपने मत व्यक्त करती हैं – 
भाषा के संयम और साधना के बाद, कथ्य को नपे-तुले शब्दों में कलात्मक अभिव्यक्ति देने पर ही लघुकथा का सृजन संभव है |( पृ.- 36 ) 
विधा संबंधी मापदंडों पर फिर रचनाकारों की रचनाओं को परखा जाता है – 
इनमें न तो कोई जल्दबाजी दिखाई पड़ती है और न ही लघुकथा के मानदंडों का अनुसरण है, बस कुछ बातें लघु रूप में मन को देर तक मथती रहीं, वो ही लघुकथा बनकर कागज पर उतरी | उर्मी जी की इन लघुकथाओं में सरलता, स्पष्टता व ईमानदारी है |” 
( उर्मी कृष्ण, पृ.- 68 )
विषय-वस्तु और शिल्प को परखना आलोचक का प्रमुख कार्य है | डॉ. शील कौशिक भले ही सभी रचनाकारों की सभी कृतियों तक नहीं पहुँच पाई हों, लेकिन इस पुस्तक में रचनाकारों की रचनाओं के विषय पक्ष और शिल्प पक्ष पर काफी कुछ कहा गया है | 
चन्दन बाला जैन के बारे में वे लिखती हैं – 
विरह, वेदना के अतिरिक्त कवयित्री ने सामाजिक सरोकारों पर रचनाएं लिखकर अपने लेखकीय धर्म का निर्वाह किया है |( पृ.- 28 )
डॉ. कश्मीरी देवी के बारे में वे लिखती हैं – 
उनकी लगभग सभी कृतियों में भोले-भाले दिखने वाले ग्रामीण परिवेश में अंदर ही अंदर दिल हिला देने वाली घटनाओं का सजीव चित्रण है | उसी वातावरण को निर्मित करने में लोकभाषा का प्रयोग उनके लेखन की विशेषता है | ( पृ.- 207 )
डॉ. शमीम के लेखन के बारे में वे लिखती हैं – 
लेखिका शमीम ने रोंगटे खड़े कर देने की हद तक स्त्रियों की दुर्दशा का चित्र खींचा है और उसके कारकों को उजागर किया है | मंझी हुई व्यंग्य शैली की भाषा का प्रयोग किया है व अपने विचार पूरे दमखम और अधिकार से लिखे हैं |( पृ.- 245 )
कवि की कल्पना की उड़ान को उन्होंने समझा है –
किरण के इस संग्रह की सभी कविताएँ युवा मन की कल्पना की आश्वासनपूर्ण उड़ान को प्रतिबिम्बित करती हैं | कवयित्री की यह उड़ान यथार्थ के धरातल से उठकर काव्यानुभूति के क्षितिज की ओर सहज भाव से चलती जाती है |( किरण मल्होत्रा, पृ.- 377 )
रचनाकारों की भाषा, लेखन-शैली को भी बड़ी बारीकी से देखा गया है | डॉ. सुधा जैन के बारे में वे लिखती हैं – 
कवयित्री ने भाषा की लाक्षणिक शक्ति से अधिक काम लिया है, जिससे उनमें सम्प्रेषणीयता की वृद्धि हुई है |( पृ.- 33 )
शारदा गुप्ता सुहासिनी के बारे में वे लिखती हैं – 
कवयित्री शारदा गुप्ता ने सरल, सहज भावाभिव्यक्ति में इन्द्रधनुषी रंगों से भरी अनुभूतियाँ दी हैं | ” ( पृ.- 153 )
डॉ. ज्ञानी देवी का मूल्यांकन उन्होंने ये कहते हुए किया है – 
कवयित्री और कथाकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाने वाली डॉ. ज्ञानी देवी के पास समृद्ध भाषा है, अर्थवत्ता की दृष्टि से प्रतीकों का प्रयोग बहुत ही व्यावहारिक व जीवंत है | कविता में प्रयुक्त अलंकार सार्थक, सजीव व विषयानुकूल हैं |( पृ.- 285 )
अंजु दुआ जैमिनी की कहानियों पर विचार करते हुए वे लिखती हैं – 
कहानियों की भाषा-शैली साफ़-सुथरी, सहज व प्रभावी है | ज्यादातर कहानियों में व्यास शैली का ही प्रयोग किया है | चार कथा-संग्रह लिखने से उनकी भाषा निश्चित रूप से सम्पुष्ट होती गई है तथा पात्रों के चरित्र-चित्रण में परिपक्वता आती गई है | पात्रानुकूल भाषा का प्रयोग व पात्रों के परिवेश निर्माण में सांमजस्य स्थापित किया गया है | ( पृ.- 346 )
कुछ इसी प्रकार का मूल्यांकन डॉ. गार्गी के कथा-शिल्प का मिलता है – 
कहानियों का शिल्प ऊपर से आरोपित नहीं है, बल्कि कहानी की मांग के अनुसार अत्यान्तिक पक्ष बनकर उभरा है | इकहरे शिल्प की बजाए वह संश्लिष्टता लिए हुए है | जहां तक भाषा का प्रश्न है, वह सरल, स्वाभाविक व पात्रानुकूल है | कहानियों में अनुकूल परिवेश का निर्माण हुआ है | डॉ. गार्गी ने आत्मकथात्मक, व्यंग्यात्मक एवं चित्रात्मक शैलियों का विभिन्न कहानियों में सफल प्रयोग किया है | साधारण से दिखने वाले शब्द डॉ. गार्गी के कुशल हाथों में पड़कर अर्थवान और व्यंजनापूर्ण हो उठते हैं, इसलिए उनकी भाषा एक विशेष चमक लिए हुए है |( पृ.- 193 )
रचनाकार का लेखन कौशल बनावटी है या स्वाभाविक इस पर भी डॉ. शील की नजर गई है – 
अपनी अभिव्यंजना को आकर्षक और वैविध्यपूर्ण बनाने के लिए चन्द्रकान्ता जी ने अनेक शिल्प प्रविधियों को आजमाया है, लेकिन यह आजमाइश सायास नहीं बल्कि वहाँ के परिवेश से उपजी है |” ( पृ.- 72 )
रचना के शिल्प का पाठक पर जो प्रभाव पड़ता है, उसका अंकन भी किया गया है – 
कहानियों की भाषा सरल, सरस, मुहावरेदार व लोकोक्तियों से भरपूर है | इनमें प्रबल सम्प्रेषणीयता है तथा ये पाठक को सहज ही अपने साथ बहा ले जाने का मादा रखती हैं | ” 
( कमल कपूर, पृ.- 184 )
साहित्यकार और साहित्य के सामर्थ्य को भी उन्होंने स्पष्ट किया है – 
इनकी कहानियाँ हमारी आँख में उँगली डालकर दिखाना चाहती हैं कि नारी जीवन की चमक कहाँ खो गई, क्यों खो गई और कौन लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं ? ” 
( शकुंतला ब्रजमोहन, पृ.- 22 )
लेखिका ने विभिन्न रचनाकारों की समस्त रचनाओं के आधार पर अपने निष्कर्ष भी निकले हैं | लेखा चंदा ‘ संध्या ’ के बारे में वे लिखती हैं – 
समग्रत: अधिकतर अतुकांत शैली में प्रस्तुत इनकी कविताओं में जिंदगी के सभी रंग मौजूद हैं, परन्तु अधिकांश कविताओं में व्यक्तिगत अनुभूतियाँ हैं जिनमें प्रेम, वात्सल्य, आँसू, व्यथा, आशा, हताशा और आत्मविश्वास है | सामाजिक जीवन की विसंगतियों, जिसमें प्रमुखतया आपसी रिश्तों के अवमूल्यन पर कवयित्री चिंतित होती है | ( पृ.- 226 )
डॉ. संतोष गोयल के नजरिये के बारे में उनका मत है – 
समग्रत: डॉ. संतोष गोयल की अपनी जिजीविषा है, चीजों को अलग ढंग से देखने का नजरिया है | उनकी बेचैनी उन्हें नित नए आयाम खोजने को प्रेरित करती है | ( पृ.- 127 )
डॉ. ऊषा अग्रवाल के लेखन कौशल और उसके प्रभाव को भी बड़े सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है – 
समग्रत: डॉ. ऊषा अग्रवाल में विचारों की परिपक्वता के साथ-साथ प्रवाहपूर्ण भाषा-शैली, जगह-जगह विद्वतजनों के विचार, दोहे, मुहावरे व कविता की पंक्तियाँ इन कहानियों को सरसता प्रदान करती हैं | कहानी इतनी मनोरम और दिलचस्प होती है कि पाठक इनमें डूब जाता है और अंत में कहानी में छिपी संवेदना से अनुभूत होकर आँसू ढलकाने लगता है | 
( पृ.- 62 )
आलोचक को निष्पक्ष होना चाहिए और निष्पक्षता का अर्थ है, सही को सही और गलत को गलत कहना | डॉ. शील कौशिक इस कसौटी पर खरी उतरती हैं | उन्होंने बड़ी निर्भीकता से रचनाकारों की कमियों को उजागर किया है | इंद्रा बंसल के बारे में वे लिखती हैं – 
यदि लेखिका थोडा-सा शीर्षक पर ध्यान देती और कसावट में सुधार करतीं तो नि:संदेह यह एक उत्कृष्ट लघुकथा संग्रह हो सकता था | ( पृ.- 85 )
पायल मनोज मित्तल के बारे में लिखती हैं – 
नवोदित रचनाकार ‘ पायल ’ की कहानियों में अनावश्यक विस्तार व दोहराव है | 
( पृ.- 375 )
         यह दृष्टिकोण तब भी नहीं बदलता, जब कोई कृति प्रसिद्ध हो चुकी हो | स्वीटी के कहानी संग्रह ‘ एक और द्रौपदी ’ के बारे में लेखिका का यह लिखना – 
हरियाणा साहित्य अकादमी ने इस पुस्तक को प्रथम पुरस्कार से नवाजा है, परन्तु यदि लेखिका अभद्र भाषा का सीधे-सीधे प्रयोग न करके इन सब बातों को सांकेतिक रूप में कहती तो ज्यादा हितकर होता |” ( पृ.- 237 )
          यहाँ गलत दिखा उसकी आलोचना की, जो सुंदर था उसको उभारा और जिसमें संभावना दिखी उसकी पीठ थपथपाई, ये हर आलोचक में पाए जाने वाले सामन्य गुण होने चाहिए | डॉ. शील कौशिक इनसे परिपूर्ण हैं | नई रचनाकारों में उन्हें उम्मीद दिखती हैं | रश्मि सानन के बारे में वे लिखती हैं – 
कवयित्री में गजल को ऊँचाइयों तक ले जाने की संभावनाएं छुपी हुई हैं |( पृ.- 326 )
ऐसी ही आशा वो मोनिका गुप्ता से लगाती हैं – 
बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिनी मोनिका गुप्ता में लेखन की असीम संभावनाएँ हैं | आशा है वो इस पथ की गामिनी बनकर साहित्याकाश में ऊँचाइयाँ प्राप्त कर सकेंगी | ” 
( पृ.- 340 )
डॉ. शील कौशिक ने रचनाकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करते हुए उनके स्थान निर्धारण की दिशा में भी अपने मत दिए हैं | डॉ. कमलेश मलिक की कहानियों के बारे में वह कहती हैं – 
संग्रह में संकलित कई कहानियाँ निस्संदेह राष्ट्रीय स्तर के महिला लेखन का प्रतिनिधित्व करती हैं |” ( पृ.- 131 )
डॉ. सावित्री वशिष्ठ के बारे में वे लिखती हैं – 
इस लब्ध-प्रतिष्ठित लेखिका के लेखन में समूचा हरियाणवी परिवेश चित्रित हो उठा है | भारतीय नारी के सम्पूर्ण गुण-दोषों के साथ-साथ स्वभाव, आचरण परिवेश एवं मुश्किलों का हरियाणवी भाषा में साक्षात्कार कराने वाली हरियाणा की वो एकमात्र रचनाकार हैं | ” 
( पृ.- 117 )
डॉ. मुक्ता के बारे में उनकी राय है – 
इनकी भाषा वर्णनात्मक होते हुए भी ओज रस, करुण रस, वीर रस व वात्सल्य रस से ओत-प्रोत है | सहज और सुपाच्य शैली में अभिव्यक्ति इन्हें लेखिकाओं की विशेष पंक्ति में खड़ा करती है |( पृ.- 166 )
हरियाणा ग्रन्थ अकादमी द्वारा प्रकाशित इस शोध ग्रन्थ में हरियाणा की समस्त महिला रचनाकारों को लिया गया है | लेखिका खुद एक स्थापित नाम हैं, ऐसे में उनके बिना यह आलोचना ग्रन्थ अधूरा रहता लेकिन खुद अपने बारे में आलोचक के रूप में लिखना ठीक नहीं होता | ऐसे में लेखिका ने इसका बड़ा सुंदर तोड़ निकाला | अपने बारे में खुद के शब्दों की बजाए अन्य विद्वानों की टिप्पणियों को लिखा, जिससे वे आत्म प्रशंसा से बच सकीं और इस पुस्तक को अधूरा होने से भी बचा लिया |
आलोचक न तो निंदक होता है और न ही चारण भाट | साहित्य के सिद्धांतों की कसौटियों पर रचनाओं को परखना और निष्पक्षता से उसके बारे में कहना ही उसका धर्म है, लेकिन यह धर्म निभाना अत्यंत कठिन है, लेकिन डॉ. शील कौशिक इसमें सफल रही हैं और इसी कारण “ हरियाणा की महिला रचनाकार : विविध आयाम ” जैसी श्रेष्ट करती का सृजन हो सका है |
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दिलबागसिंह विर्क 
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2 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

आलोचना की पुस्तक की सारगर्भित आलोचना..बधाई !

Unknown ने कहा…

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