BE PROUD TO BE AN INDIAN

मंगलवार, जून 12, 2012

विराज के दुखों की गाथा है बिराज बहू

शरतचंद्र का उपन्यास बिराज बहू विराज के दुखों की गाथा है । पति के कोई काम न करने का दुःख उठाती है विराज । ननद को दिए गए दहेज़ और अकाल के कारण आई गरीबी का दुःख  उठाती है विराज । सतीत्व में सावित्री से प्रतिस्पर्द्धा करने को उत्सुक विराज सतीत्व से लड़खड़ा जरूर जाती है लेकिन पतित होने से पूर्व ही वह खुद को संभाल लेती है और अंत में पति के पास रहते हुए वैसी ही मृत्यु को प्राप्त होती है जैसी कि विराज के अनुसार एक सती को मिलनी चाहिए ।

                नीलाम्बर और पीताम्बर दो भाई हैं ।दोनों अलग-अलग रहते हैं । दोनों का स्वभाव भी विरोधी है । नीलाम्बर गांजा पीने और लोकभलाई में मस्त रहने वाला है जबकि पीताम्बर घर-गृहस्थी चलाने में निपुण है । दोनों की बहन पूंटी नीलाम्बर की तरफ रहती है । नीलाम्बर पूंटी से बेहद प्यार करता है । वह पूंटी की शादी अच्छे घराने में करता है । पूंटी के सास ससुर बेहद लालची हैं । बेटे की पढाई का खर्च वे नीलाम्बर से वसूलते हैं । पूंटी की ससुराल वालों का घर भरते-भरते और ऊपर से अकाल सहते-सहते वह दीन हालत में पहुंच जाता है । नीलाम्बर का दिन-रात पूंटी की चिंता में चिंतित रहना विराज को नहीं सुहाता । दोनों में तकरार रहती है । विराज कई बार अपने पति को निकम्मा होने का ताना भी सुनती है । इसी दौरान राजेन्द्र नामक व्यक्ति  जो जमींदार का बिगडैल पुत्र है इस क्षेत्र में आ जाता है । वह विराज पर बुरी नजर रखता है । विराज की नौकरानी सुन्दरी के जरिए वह विराज को पाना चाहता है । विराज सुन्दरी को घर से निकाल देती है । वह राजेन्द्र को भी खरी खरी सुनाती है ।
                       गरीबी के दिनों में विराज सांचे बनाकर भोजन का प्रबंध कर रही है । पीताम्बर की पत्नी मोहनी उनकी दशा देखकर दुखी होती है । वह मदद करना चाहती है लेकिन विराज इनकार कर देती है । सांचे बनवाने वाली फैक्ट्री के चले जाने के बाद भूखे मरने की नौबत आ जाती है ।  नीलाम्बर  नाच गाने वालों के साथ ढोलक बजाने का काम कर लेता है । एक दिन बीमार विराज को छोडकर वह चला जाता है और तीन दिन तक नहीं लौटता । विराज उसके न आने से चिंतित है लेकिन जब एक लड़का  नीलाम्बर की धोती लेने आता है तब उसे पता चलता है कि  नीलाम्बर किसी मुर्दे को दफनाने में व्यस्त था , विराज बेहद निराश होती है । उसे लगता है उसका कोई नहीं । फिर भी वह पति के भोजन का बन्दोवस्त करने के लिए चंडाल बस्ती में भीख मांगने जाती है । जब तक वह वापिस आती है नीलाम्बर घर आ चुका होता है । रात के समय विराज को बाहर से आते देखकर वह उस पर शक करता है । दोनों में तकरार होती है । नीलाम्बर उस पर हाथ उठाता है । सारी बात सच-सच बता विराज घर छोडकर चली जाती है ।
              मोहिनी विराज के जाने के बाद नीलाम्बर को सम्भालती है । नीलाम्बर और मोहिनी को लगता है कि विराज ने आत्महत्या कर ली लेकिन पीताम्बर नहीं मानता । बाद में उन्हें पता चलता है कि विराज सुन्दरी के साथ राजेन्द्र बाबू के पास चली गई है । पीताम्बर की सांप द्वारा डस लेने से मृत्यु हो जाती है । घर में नीलाम्बर और मोहिनी रह जाते हैं । पूंटी सास-ससुर की मृत्यु के बाद अपने भाई-भाभी से मिलने आती है । यहाँ के हालात देखकर वह दुखी होती है । वह अपने भाई नीलाम्बर को उदास नहीं देख सकती । उन्हें खुश देखने के लिए वह उन्हें लेकर यात्रा पर चली जाती है । उधर विराज राजेन्द्र के पास जाकर खुद को सम्भालती है और नदी में कूद जाती है । उसे अज्ञात लोग बचा लेते हैं । वह भीख मांगती चलती जाती है । आखिर में वह घर लौटने का फैसला करती है । नीलाम्बर के खुश न होने से पूंटी भी वापिस लौट पडती है । वापसी के सफर में नीलाम्बर को विराज मिलती है । वे उसे घर ले आते हैं । यहाँ आकर वह पति के चरणों में मृत्यु को प्राप्त होती है ।
                    शरतचंद्र का यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है । दहेज, अकर्मण्यता आज के युग की भी समस्याएं हैं । काम न करने से आज भी बड़े-बड़े जमींदार तबाह हो रहे हैं । दहेज आज भी विकराल रूप धारण किए हुए है । गरीबी आने पर घरों में लड़ाई-झगड़ा सामान्य बात है और क्रोध के आवेश में गलत कदम उठाना भी स्वभाविक बात है । यह सब कुछ इस उपन्यास में होता है । यह उपन्यास विराज को केंद्र में रखकर लिखा गया है  , ऐसे में उसका गौरवगान जरूरी है । क्रोध में वह गलत कदम उठाती अवश्य है लेकिन लेखक उसे पतित करके उपन्यास की कथा को राह से भटकने नहीं देता और वह विराज को पतित होने से बचा लेता है । सास-ससुर ही दहेज लोभी होते हैं यह बात भी इस उपन्यास में उठाई गई है, तभी पूंटी सास-ससुर की मृत्यु के बाद अपने पति के साथ मायके आ जाती है, जबकि सास-ससुर उसकी खबर भी उसके मायके नहीं भेजने देते थे । नीलाम्बर और विराज में बहुधा तकरार होती है लेकिन नीलाम्बर विराज की महानता को मानता है तभी तो वह विराज के राजेन्द्र के पास चले जाने की खबर सुनकर भी विराज को दिल से नहीं भूलता और जब वह दीन दशा में उसे रास्ते में मिलती है तो वह उसे घर ले आता है । दुखों का अंत मृत्यु से ही होता है ------- इस उक्ति के अनुसार विराज की मृत्यु ही इस उपन्यास का एकमात्र अंत हो सकता है जो शरतचंद्र दिखाते हैं । शरतचंद्र विराज को सती स्त्री के रूप में स्थापित करने में पूरी तरह से सफल होते हैं ।

                             *************







5 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपने विराज बहू उपन्यास की बहुत सारगर्भित समीक्षा प्रस्तुत की है!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुंदर .... बैराज बहू पुस्तक भी पढ़ी है और चलचित्र भी देखा है .... सुंदर प्रस्तुतीकरण

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुंदर .... बिराज बहू पुस्तक भी पढ़ी है और चलचित्र भी देखा है .... सुंदर प्रस्तुतीकरण
प्रत्‍युत्तर देंहटाएं

शिवनाथ कुमार ने कहा…

'विराज बहु' की सुंदर समीक्षा प्रस्तुत की है आपने ....
दुखों का अंत मृत्यु से ही होता है ... बहुत सही ....
साभार !!

ZEAL ने कहा…

Great presentation Sir .

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...